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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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का कर्त्तत्व उड़ जाता है। ऐसे सम्यनियतिवाद की श्रद्धा में पाँचों समवाय एक साथ आ जाते हैं।
पहले तो स्वभाव का ज्ञान और श्रद्धा की, वह पुरुषार्थ;
उसी समय जो निर्मलपर्याय प्रगट होनी नियत थी, वही पर्याय प्रगटी है, यह नियत;
उस समय जो पर्याय प्रगट हुई, वही स्वकाल;
जो पर्याय प्रगट हुई, वह स्वभाव में थी, वही प्रगट हुई, इसलिए वह स्वभाव;
उस समय पुद्गलकर्म का स्वयं अभाव होता है, वह अभावरूप निमित्त एवं सद्गुरु इत्यादि हों, वे सद्भावरूप निमित्त हैं।
पर्याय क्रमबद्ध ही होती है, इसकी श्रद्धा करने पर अथवा ज्ञानस्वभाव का निर्णय करने पर जीव, जगत् का साक्षी हो जाता है। इसमें स्वभाव का अनन्त पुरुषार्थ आ जाता है - यह जैनदर्शन का मूलभूत रहस्य है।
सम्यक्नियतिवाद और मिथ्यानियतिवाद गोम्मटसार कर्मकाण्ड की 882 वीं गाथा में जिस नियतिवादी जीव की गृहीतमिथ्यादृष्टि कहा है, वह जीव तो नियतिवाद की बात करता है, किन्तु वह न तो सर्वज्ञ को मानता है और न अपने ज्ञान में ज्ञाता-दृष्टापने का पुरुषार्थ करता है। यदि सम्यनियतिवाद का यथार्थ निर्णय करे तो उसमें सर्वज्ञ का निर्णय और स्वभाव के ज्ञातादृष्टापने का पुरुषार्थ आ ही जाता है और यह सम्यनिर्णय गृहीत एवं अगृहीतमिथ्यात्व का नाश करनेवाला है। सम्यक्-नियतिवाद कहो या स्वभाव कहो; उसमें प्रत्येक समय की पर्याय की स्वतन्त्रता सिद्ध हो जाती है। यदि इस न्याय को जीव भलीभाँति समझे तो