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उपादान-निमित्त की स्वतन्त्रता
यह भी निर्णय हो गया कि किसी भी द्रव्य में कुछ भी परिवर्तन करना या राग-द्वेष करना मेरा कार्य नहीं है। इस प्रकार नियत का निर्णय करने पर 'मैं पर का कुछ कर सकता हूँ' - ऐसा अहंकार दूर हो गया और ज्ञान, पर से उदासीन होकर, स्वभावसन्मुख हो गया। अब, राग के होने पर भी उसका निषेध करके, ज्ञान, द्रव्यस्वभाव की
ओर सन्मुख होता है। जब पर्याय को जानता है, तब ज्ञान में ऐसा विचार करता है कि मेरी क्रमबद्धपर्यायें मेरे द्रव्य में से प्रगट होती हैं। त्रिकाल द्रव्य ही एक के बाद एक पर्याय को द्रवित करता है। वह त्रिकाल द्रव्य, रागस्वरूप नहीं है; इसलिए जो राग हुआ है, वह भी मेरा स्वरूप नहीं है और मैं उसका कर्ता नहीं हूँ। इस प्रकार जिसने अपने ज्ञान में द्रव्यस्वभाव का निर्णय किया, उस जीव का ज्ञान अपने शुद्ध स्वभाव के सन्मुख होता है और उसको सम्यक्श्रद्धाज्ञान प्रगट होते हैं; वह पर से उदासीन हुआ है। राग का अकर्ता होकर, पर से तथा विकार से हटकर, उसकी बुद्धि ज्ञानस्वभाव में ही झुक गयी है; यह सम्यक् नियतिवाद का और सर्वज्ञ के निर्णय का फल है। इसमें ज्ञान और पुरुषार्थ की स्वीकृती है, किन्तु जो जीव एकान्तनियतिवाद को मानता है अर्थात् नियति के निर्णय में अपना जो ज्ञान और पुरुषार्थ आता है, उसका स्वीकार नहीं करता और स्वभावसन्मुख नहीं होता, वह मिथ्यादृष्टि है और उसका नियतिवाद गृहीतमिथ्यात्व का भेद है, इसलिए वह गृहीतमिथ्यादृष्टि है।
सम्यनियतिवाद में पाँचों समवाय ___ जो अज्ञानी यथार्थ निर्णय नहीं कर सकते, उन्हें ऐसा लगता है कि यह तो एकान्त नियतिवाद है किन्तु इस नियतिवाद का यथार्थ निर्णय करने पर अपने केवलज्ञान का निर्णय हो जाता है। अस्थिरता का जो विकल्प उठता है, उसका कर्ता आत्मा नहीं है; इस प्रकार राग