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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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कौन है? आत्मा स्वयं उनका कर्ता है। इस प्रकार आत्मा को लक्ष्य में लेने के लिये दूसरी पढ़ाई की कहाँ आवश्यकता है? यह अज्ञानी जीव, दुनियाँ की बेगार / मजदूरी करके दुःखी होता है, उसके बदले यदि वस्तुस्वभाव को समझे तो कल्याण हो जाए। अरे जीव! ऐसे सुन्दर न्याय द्वारा सन्तों ने वस्तुस्वरूप समझाया है, उसे तू समझ !
इस प्रकार वस्तुस्वरूप के दो बोल हुए। अब, तीसरा बोल - (3) कर्ता के बिना, कर्म नहीं होता
कर्ता; अर्थात्, परिणमित होनेवाली वस्तु और कर्म; अर्थात्, उसकी अवस्थारूप कार्य; कर्ता के बिना कर्म नहीं होता; अर्थात्, वस्तु के बिना पर्याय नहीं होती; सर्वथा शून्य में से कोई कार्य उत्पन्न हो जाए - ऐसा नहीं होता।
देखो! यह वस्तुविज्ञान के महान सिद्धान्त हैं, इस पर 211 वें कलश में चार बोलों द्वारा चारों पक्षों से स्वतन्त्रता सिद्ध की है। अज्ञानी, विदेशों में अज्ञान की पढ़ाई के पीछे हैरान होते हैं, उसकी अपेक्षा सर्वज्ञदेव कथित इस परमसत्य वीतरागी-विज्ञान को समझे तो अपूर्व कल्याण हो।
(1) परिणाम, सो कर्म - यह एक बात। __ (2) वह परिणाम किसका? कि परिणामी वस्तु का परिणाम है, दूसरे का नहीं। यह दूसरा बोल; इसका बहुत विस्तार किया।
अब, यहाँ इस तीसरे बोल में कहते हैं कि परिणामी के बिना परिणाम नहीं होता। परिणामी वस्तु से भिन्न अन्यत्र कहीं परिणाम हो - ऐसा नहीं होता। परिणामी वस्तु में ही उसके परिणाम होते हैं; इसलिए परिणामी वस्तु, वह कर्ता है; उसके बिना कार्य नहीं होता।