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परिशिष्ट : स्वतन्त्रता की घोषणा
कहा हुआ वस्तुस्वरूप का तत्त्व है । सन्तों ने इसका विस्तार करके आश्चर्यकारी कार्य किया है, पदार्थ का पृथक्करण करके भेदज्ञान कराया है। अन्तर में इसका मन्थन करके देख, तो मालूम हो कि अनन्त सर्वज्ञों तथा सन्तों ने ऐसा ही वस्तुस्वरूप कहा है और ऐसा ही वस्तु का स्वरूप है।
सर्वज्ञ भगवन्त दिव्यध्वनि द्वारा ऐसा तत्त्व कहते आये हैं - ऐसा व्यवहार से कहा जाता है किन्तु वस्तुत: दिव्यध्वनि तो परमाणुओं के आश्रित है।
कोई कहे कि अरे, दिव्यध्वनि भी परमाणु-आश्रित हैं ? हाँ, दिव्यध्वनि, वह पुद्गल का परिणाम है और पुद्गलपरिणाम का आधार तो पुद्गलद्रव्य ही होता है; जीव उसका आधार नहीं हो सकता। भगवान का आत्मा तो अपने केवलज्ञानादि का आधार है। भगवान का आत्मा तो केवलज्ञान-दर्शन-सुख इत्यादि निजपरिणामरूप परिणमन करता है परन्तु कहीं देह और वाणीरूप अवस्था धारण करके परिणमित नहीं होता; उस रूप तो पुद्गल ही परिणमित होता है। परिणाम, परिणामी के ही होते हैं; अन्य के नहीं।
भगवान की सर्वज्ञता के आधार से दिव्यध्वनि के परिणाम हुए - ऐसा वस्तुस्वरूप नहीं है। भाषारूप परिणाम, अनन्त पुद्गलाश्रित हैं और सर्वज्ञता आदि परिणाम, जीवाश्रित है; इस प्रकार दोनों की भिन्नता है। कोई किसी का कर्ता या आधार नहीं है।
देखो! यह भगवान आत्मा की अपनी बात है। समझ में नहीं आयेगी - ऐसा नहीं मानना; अन्तरलक्ष्य करे तो समझ में आये - ऐसी सरल है। देखो, लक्ष्य में लो कि अन्दर कोई वस्तु है या नहीं? और यह जो जानने के या रागदि के भाव होते हैं - इन भावों का कर्ता