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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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चारित्र का कार्य है; वह कार्य श्रद्धापरिणाम के आश्रित नहीं है, ज्ञानपरिणाम के आश्रित नहीं, परन्तु चारित्रगुण धारण करनेवाले आत्मा के ही आश्रित है। शरीरादि के आश्रय से चारित्रपरिणाम नहीं है।
श्रद्धा के परिणाम, आत्मद्रव्य के आश्रित हैं। ज्ञान के परिणाम, आत्मद्रव्य के आश्रित हैं। स्थिरता के परिणाम, आत्मद्रव्य के आश्रित हैं।
आनन्द के परिणाम, आत्मद्रव्य के आश्रित हैं। बस, मोक्षमार्ग के सभी परिणाम स्वद्रव्याश्रित हैं; अन्य के आश्रित नहीं हैं। उस समय अन्य (रागादि) परिणाम होते हैं, उनके आश्रित भी ये परिणाम नहीं हैं। एक समय में श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र इत्यादि अनन्त गुणों के परिणाम होते हैं, वे कर्म हैं; उनका आधार धर्मी अर्थात् परिणमित होनेवाली वस्तु है; उस समय अन्य जो अनेक परिणाम होते हैं, उनके आधार से श्रद्धा इत्यादि के परिणाम नहीं हैं। निमित्तादि के आधार से तो नहीं हैं परन्तु अपने दूसरे परिणाम के आधार से भी कोई परिणाम नहीं है। एक ही द्रव्य में एक साथ होनेवाले परिणामों में भी एक परिणाम, दूसरे परिणाम के आश्रित नहीं है, द्रव्य के ही आश्रित सभी परिणाम हैं। सभी परिणामरूप से परिणमन करनेवाला 'द्रव्य' ही है; अर्थात्, द्रव्यसन्मुख लक्ष्य जाते ही सम्यक् पर्यायें प्रगट होने लगती हैं।
वाह ! देखो, आचार्यदेव की शैली !! थोड़े में बहुत समा देने की अद्भुत शैली है। चार बोलों के इस महान् सिद्धान्त में वस्तुस्वरूप के बहुत से नियमों का समावेश हो जाता है। यह त्रिकाल सत्य, सर्वज्ञ द्वारा निश्चित किया हुआ सिद्धान्त है।
अहो! यह परिणामी के परिणाम की स्वाधीनता, सर्वज्ञदेव द्वारा