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________________ 218 परिशिष्ट : स्वतन्त्रता की घोषणा ___ अहो! यह तो सुगम और स्पष्ट बात है। लौकिक पढ़ाई अधिक न की हो, तथापि यह समझ में आ जाए - ऐसा है। जरा अन्तर में उतरकर लक्ष्य में लेना चाहिए कि आत्मा अस्तिरूप है, उसमें ज्ञान है, आनन्द है, श्रद्धा है, अस्तित्व है; इस प्रकार अनन्त गुण हैं। इन अनन्त गुणों के भिन्न-भिन्न अनन्त परिणाम प्रति समय होते हैं, उन सभी का आधार परिणामी - ऐसा आत्मद्रव्य है; अन्य वस्तु तो उनका आधार नहीं है परन्तु अपने में दूसरे गुणों के परिणाम भी उनका आधार नहीं है। जैसे कि श्रद्धापरिणाम का आधार ज्ञानपरिणाम नहीं है और ज्ञानपरिणाम का आधार श्रद्धापरिणाम नहीं है; दोनों परिणामों का आधार, आत्मा ही है। इसी प्रकार सर्व गुणों के परिणामों के लिये समझना। इस प्रकार परिणामी का ही परिणाम है; अन्य का नहीं। इस 211 वें कलश में आचार्यदेव द्वारा कहे गये वस्तुस्वरूप के चार बोलों में से अभी दूसरे बोल का विवेचन चल रहा है। प्रथम तो कहा कि 'परिणाम एव किल कर्म' और फिर कहा कि 'स भवति परिणामिन एव, न अपरस्य भवेत्' परिणाम ही कर्म है और वह परिणामी का ही होता है, अन्य का नहीं - ऐसा निर्णय करके स्वद्रव्योन्मुख लक्ष्य जाने से सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है। सम्यग्ज्ञान व सम्यग्दर्शनपरिणाम हुआ, वह आत्मा का कर्म है, वह आत्मारूप परिणामी के आधार से हुआ है। पूर्व के मन्दराग के आश्रय से अथवा वर्तमान में शुभराग के आश्रय से सम्यग्दर्शन या सम्यग्ज्ञान के परिणाम नहीं होते। यद्यपि राग भी है तो आत्मा का परिणाम, तथापि श्रद्धापरिणाम से रागपरिणाम अन्य हैं, वे श्रद्धा के परिणाम, राग के आश्रित नहीं हैं क्योंकि परिणाम, परिणामी के ही आश्रय से होते हैं; अन्य के आश्रय से नहीं होते। उसी प्रकार चारित्रपरिणाम में-आत्मस्वरूप में स्थिरता. वह
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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