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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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- रुपयों का आना-जाना, वह रुपयों के परमाणुओं के आधार
से है।
- इच्छा का होना, वह आत्मा का चारित्रगुण के आधार से है।
यह तो भिन्न-भिन्न द्रव्य के परिणामों की भिन्नता की बात हुई; यहाँ तो उससे भी आगे अन्दर की बात लेना है। एक ही द्रव्य के अनेक परिणाम भी एक-दूसरे के आश्रित नहीं हैं - ऐसा बतलाना है। राग और ज्ञान दोनों के कार्य भिन्न हैं; एक-दूसरे के आश्रित नहीं हैं।
किसी ने गाली दी और जीव को द्वेष के पापपरिणाम हुए; वहाँ वे पाप के परिणाम प्रतिकूलता के कारण नहीं हुए और गाली देनेवाले के आश्रित भी नहीं हुए, परन्तु चारित्रगुण के आश्रित हुए हैं । चारित्रगुण ने उस समय उस परिणाम के अनुसार परिणमन किया है; अन्य तो निमित्तमात्र हैं।
अब, द्वेष के समय उसका ज्ञान हुआ कि 'मुझे यह द्वेष हुआ' - यह ज्ञानपरिणाम, ज्ञानगुण के आश्रित है; क्रोध के आश्रित नहीं है। ज्ञानस्वभावी द्रव्य के आश्रित ज्ञानपरिणाम होते हैं; अन्य के आश्रित नहीं होते। इसी प्रकार सम्यग्दर्शनपरिणाम, सम्यग्ज्ञानपरिणाम, आनन्द परिणाम इत्यादि में भी ऐसा ही समझना। यह ज्ञानादि परिणाम, द्रव्य के आश्रित हैं; अन्य के आश्रित नहीं हैं तथा परस्पर एक-दूसरे के आश्रित भी नहीं हैं।
गाली के शब्द अथवा द्वेष के समय उसका जो ज्ञान हुआ, वह ज्ञान, शब्दों के आश्रित नहीं है और क्रोध के आश्रित भी नहीं है, उसका आधार तो ज्ञानस्वभावी वस्तु है; इसलिए उस पर दृष्टि लगा तो तेरी पर्याय में मोक्षमार्ग प्रगट हो जाएगा। इस मोक्षमार्गरूपी कार्य का कर्ता भी तू ही है; अन्य कोई नहीं।