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परिशिष्ट : स्वतन्त्रता की घोषणा
क्रिया का ज्ञान अथवा इच्छा के भाव का ज्ञान होता है, वह ज्ञानपरिणाम आत्माश्रित होता है। इस प्रकार परिणामों का विभाजन करके वस्तुस्वरूप का ज्ञान करना चाहिए।
भाई! तेरा ज्ञान और तेरी इच्छा - ये दोनों परिणाम, आत्मा में होते हुए भी जब एक-दूसरे के आश्रित नहीं हैं तो फिर पर के आश्रय की तो बात ही कहाँ रही? दान की इच्छा हुई और रुपये दिये गये; वहाँ रुपये जाने की क्रिया भी हाथ के आश्रित नहीं है, हाथ का हिलना इच्छा के आश्रित नहीं है और इच्छा का परिणमन, ज्ञान के आश्रित नहीं है; सभी अपने-अपने आश्रयभूत वस्तु के आधार से हैं।
देखो! यह सर्वज्ञ के पदार्थ-विज्ञान का पाठ है - ऐसे वस्तुस्वरूप का ज्ञान, सच्चा पदार्थ-विज्ञान है। जगत् के पदार्थों का स्वभाव ही ऐसा है कि वे सदा एकरूप नहीं रहते, परन्तु परिणमन करके नवीन-नवीन अवस्थारूप कार्य किया करते हैं - ये बात चौथे बोल में कही जाएगी। जगत् के पदार्थों का स्वभाव ऐसा है कि वे नित्य स्थायी रहें और उनमें प्रतिक्षण नवीन-नवीन अवस्थारूप कार्य उनके अपने ही आश्रित हुआ करे। वस्तुस्वभाव का ऐसा ज्ञान हा सम्यग्ज्ञान है।
- जीव को इच्छा हुई, इसलिए हाथ हिला और सौ रुपये दिये गये - ऐसा नहीं है।
- इच्छा का आधार आत्मा है; हाथ और रुपयों का आधार परमाणु है।
- रुपयों के ज्ञान से इच्छा हुई - ऐसा भी नहीं है। - हाथ का हलन-चलन, वह हाथ के परमाणुओं को आधार