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परिशिष्ट : स्वतन्त्रता की घोषणा
जानने की पर्याय हुई, वह उसका कर्म है - वर्तमान कर्म है। राग या शरीर, वह कोई ज्ञान का कार्य नहीं, परन्तु ' यह राग है, यह शरीर है' - ऐसा उन्हें जाननेवाला जो ज्ञान है. वह आत्मा का कार्य है। आत्मा के परिणाम, वह आत्मा का कार्य है और जड़ के परिणाम; अर्थात्, जड़ की अवस्था, वह जड़ का कार्य है। इस प्रकार एक बोल पूर्ण हुआ।
(2) परिणाम, वस्तु का ही होता है, दूसरे का नहीं।
अब, इस दूसरे बोल में कहते हैं कि जो परिणाम होता है, वह परिणामी पदार्थ का ही होता है; वह किसी अन्य के आश्रय से नहीं होता। जिस प्रकार सुनते समय जो ज्ञान होता है, वह कार्य है - कर्म है। यह ज्ञान, किस का कार्य है ? वह ज्ञान, शब्दों का कार्य नहीं है परन्तु परिणामी वस्तु जो आत्मा है, उसी का वह कार्य है। परिणामी के बिना परिणाम नहीं होता। ___ आत्मा, परिणामी है, उसके बिना ज्ञानपरिणाम नहीं होता - यह सिद्धान्त है परन्तु वाणी के बिना ज्ञान नहीं होता – यह बात सत्य नहीं है। शब्दों के बिना ज्ञान नहीं होता - ऐसा नहीं, परन्तु आत्मा के बिना ज्ञान नहीं होता - ऐसा है। इस प्रकार परिणामी आत्मा के आश्रय से ही ज्ञानादि परिणाम हैं।
देखो! यह महासिद्धान्त है, वस्तुस्वरूप का अबाधित नियम है।
परिणामी के आश्रय से ही उसके परिणाम होते हैं । जाननेवाला आत्मा, वह परिणामी है, उसके आश्रित ही ज्ञान होता है; वे ज्ञानपरिणाम आत्मा के हैं, वाणी के नहीं। ज्ञानपरिणाम, वाणी के रजकणों के आश्रित नहीं होते, परन्तु ज्ञानस्वभावी आत्मवस्तु के आश्रय से होते हैं। आत्मा, त्रिकाल स्थित रहनेवाला परिणामी है, वह स्वयं रूपान्तरित होकर नवीन-नवीन अवस्थाओं को धारण करता है। ज्ञान-आनन्द