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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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(2) परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामी के ही होते हैं, अन्य के नहीं होते, क्योंकि परिणाम अपने-अपने आश्रयभूत परिणामी (द्रव्य) के आश्रय से होते हैं; अन्य का परिणाम अन्य के आश्रय से नहीं होता।
(3) कर्ता के बिना कर्म नहीं होता; अर्थात्, परिणाम, वस्तु के बिना नहीं होता।
(4) वस्तु की निरन्तर एक समान स्थिति नहीं रहती, क्योंकि वस्तु, द्रव्य-पर्यायस्वरूप है। ___ इस प्रकार आत्मा और जड़ सभी वस्तुएँ स्वयं ही अपने परिणामस्वरूप कर्म की कर्ता हैं - ऐसा वस्तुस्वरूप का महान् सिद्धान्त आचार्यदेव ने समझाया है।
देखो! इसमें वस्तुस्वरूप को चार बोलों द्वारा समझाया है। इस जगत् में छह वस्तुएँ हैं - आत्मा, अनन्त; पुद्गलपरमाणु अनन्तानन्त; धर्म, अधर्म व आकाश, एक-एक और काल, असंख्यात । इन छहों प्रकार की वस्तुओं और उनके स्वरूप का वास्तविक नियम क्या है ? सिद्धान्त क्या है ? उसे यहाँ चार बोलों में समझाया जा रहा है।
(1) परिणाम ही कर्म है।
'ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः'; अर्थात्, परिणामी वस्तु का जो परिणाम है, वही निश्चय से उसका कर्म है। कर्म अर्थात् कार्य; परिणाम अर्थात् अवस्था। पदार्थ की अवस्था ही वास्तव में उसका कर्म / कार्य है। परिणामी अर्थात् अखण्ड वस्तु; वह जिस भाव से परिणमन करे, उस भाव को परिणाम कहते हैं। परिणाम कहो, कार्य कहो, पर्याय कहो या कर्म कहो - ये सब शब्द वस्तु के परिणाम के पर्यायवाची ही हैं।
जैसे कि आत्मा ज्ञानगुणस्वरूप है; उसका परिणमन होने से जो