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परिशिष्ट
स्वतन्त्रता की घोषणा
कर्ता-कर्म सम्बन्धी भेदज्ञान कराते हुए आचार्यदेव कहते हैं। कि वस्तु स्वयं अपने परिणाम की कर्ता है; अन्य के साथ उसका कर्ता-कर्म का सम्बन्ध नहीं है । इस सिद्धान्त को आचार्यदेव ने समयसार कलश - 211 में इस प्रकार समझाया है। (नर्दटक छन्द)
ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः स भवति नापरस्य परिणामिन एव भवेत् । न भवति कर्तृशून्यमिह कर्म न चैकतया स्थितिरिह वस्तुनो भवतु कर्तृ तदेव ततः ॥ 211॥ अर्थात्, वास्तव में परिणाम ही निश्चय से कर्म है और परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामी का ही होता है; अन्य का नहीं (क्योंकि परिणाम अपने-अपने द्रव्य के आश्रित हैं; अन्य के परिणाम का अन्य आश्रय नहीं होता) और कर्म, कर्ता के बिना नहीं होता तथा वस्तु की एकरूप (कूटस्थ) स्थिति नहीं होती (क्योंकि वस्तु द्रव्यपर्यायस्वरूप होने से सर्वथा नित्यत्व, बाधासहित है); इसलिए वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप कर्म की कर्ता है।
(इस कलश में स्वतन्त्रता के सिद्धान्त को प्रतिपादित करनेवाले चार बोल इस प्रकार हैं -)
(1) परिणाम; अर्थात्, पर्याय ही कर्म; अर्थात्, कार्य है।