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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 207 21. श्री पुरुषार्थसिद्धियुपाय (श्री अमृतचन्द्राचार्य कृत) में कहा है कि निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम्। भूतार्थबोधविमुखः प्रायः सर्वोऽपि संसारः॥5॥ अर्थात् आचार्यदेव, निश्चयनय को भूतार्थ और व्यवहारनय को अभूतार्थ वर्णन करते हैं। प्रायः सभी संसारी (मिथ्याज्ञानी) भूतार्थ, अर्थात् निश्चयनय के ज्ञान से विमुख होते हैं। ___22. श्री नियमसार गाथा 43 की टीका, कलश 65 में कहा है कि - भवभोग पराङ्मुख हे यते! पदमिदं भवहेतुविनाशनम्। भजनिजात्मनिमग्नेमते पुन, स्तव किमध्रुववस्तुति चिन्तया॥ 65॥ अर्थात् निज आत्मा में लीन बुद्धिवाले तथा भव से और भोग से पराङ्मुख हुए; हे यति! तू भवहेतु का विनाश करनेवाले ऐसे इस (ध्रुव) पद को भज; अध्रुव वस्तु की चिन्ता से तुझे क्या प्रयोजन है। चारों अनुयोगों के कथन का सार यह है कि - शुद्ध निर्मल अभेद द्रव्यस्वभाव के आश्रय से धर्म का प्रारम्भ, वृद्धि और पूर्णता होती है। नोट : इस प्रकरण के परिशिष्टरूप में गुरुदेवश्री के प्रवचन - 'स्वतन्त्रता की घोषणा' तथा 'निमित्त-उपादान की स्वतन्त्रता' दिये गये हैं, जो इस विषय को स्पष्ट करने में प्रयोजनभूत हैं। ज्ञात हो कि मूल गुजराती पुस्तक में उक्त प्रवचन नहीं हैं।
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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