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प्रकरण छठवाँ
19. श्री समयसार गाथा 413 में कहा है कि - पासंडीलिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु।
कुव्वंति जे ममत्तिं तेहिं ण णादं समयसारं॥413॥ अर्थात् जो अनेक प्रकार के मुनिलिंग में अथवा गृहस्थलिङ्गों में ममत्व करते हैं, अर्थात् यह द्रव्यलिंग ही मोक्ष देनेवाला है - ऐसा मानते हैं, उन्होंने समयसार को नहीं जाना है।
टीका - जो वास्तव में मैं श्रमण हूँ, मैं क्षमणोपासक (श्रावक) हूँ' - इस प्रकार द्रव्यलिंग में ममकार द्वारा मिथ्या अहंकार करते हैं, वे अनादिरूढ़ (अनादि से चले आ रहे) व्यवहार में मूढ़ (मोही) वर्तते हुए, प्रौढ़ विवेकवान निश्चय (निश्चयनय) पर अनारूढ़ वर्तते हुए, परमार्थ सत्य (जो परमार्थत: सत्यार्थ है ऐसे) भगवान समयसार को (आत्मा को) नहीं देखते अनुभव नहीं करते।
20. श्री पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका के निश्चय - पञ्चाशत, गाथा 9 तथा 17 में कहा है कि -
व्यवहारोऽभूतार्थो भूताथे देशितस्तु शुद्धनयः। शुद्धनय आश्रिता ये प्राप्नुवन्ति यतयः पदं परमम्॥9॥ अर्थात् व्यवहारनय तो असत्यार्थभूत कहा गया है और शुद्धनय सत्यार्थभूत कहा गया है और जो मुनि शुद्धनय के आश्रित हैं, वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
अस्पष्टमबद्धमनन्यमयुतमविशेससम्रमोपेतः। यः पश्यत्यात्मानं स पुमान् खलु शुद्धयनिष्ठः॥17॥
अर्थात् जो पुरुष भ्रमरहित होकर आत्मा को अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, असंयुक्त, अविशेष मानता है, वही पुरुष शुद्धनय में स्थित है - ऐसा समझना चाहिए।