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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 205 व्यवहारनय, निश्चय द्वारा निषिद्ध जान; निश्चयनयाश्रित मुनि, निर्वाण को प्राप्त करते हैं। 16. श्री समयसार गाथा 152 से 154 में कहा है कि परमट्ठम्हि दुअठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेदि। तं सव्वं बालतवं बालवदं बेंति सव्वण्हू ॥152॥ वदणियमाणि धरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता। परमट्ठबाहिरा जे णिव्वाणं ते ण विंदंति ॥ 153 ॥ परमट्टबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति। संसारगमणहेतुं पि मोक्खहेतुं अजाणंता॥ 154॥ 17. श्री समाधितन्त्र में श्री पूज्यपादाचार्य गाथा 78 में कहते हैं कि व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागांत्मगोचरे। जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे॥78॥ अर्थात् जो कोई व्यवहार में सोता है, अर्थात उसमें अप्रयत्नशील है, वह आत्मा के कार्य में - स्वसंवेदन में जागृत-तत्पर रहता है और जो इस व्यवहार में जागता है, उसकी साधना में तत्पर रहता है, वह स्वानुभव के विषय में सोता है। 18. श्री तत्त्वानुशासन में श्री नागदेवमुनि ने कहा है कि - स्वपरज्ञपितरूपत्वान्न तस्य कारणान्तरम्। ततशिंचतता परित्यज्य स्वसंवित्त्यैव वेद्यताम्॥162॥ अर्थात् आत्मा स्व-पर का ज्ञातास्वरूप होने से उसका अन्य कोई कारण नहीं है। इसलिए अन्य कारणान्तरों की चिन्ता छोड़कर स्वसंवेदन द्वारा ही आत्मा का अनुभव करना चाहिए।
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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