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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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अर्थात् जो योगी / ध्यानी मुनि व्यवहार में सोते हैं, वे अपने स्वरूप के कार्य में जागते हैं और जो व्यवहार में जागते हैं, वे अपने आत्मकार्य में सोते हैं।
11. श्री प्रवचनसार गाथा 200 में कहा है कि - तम्हा तह जाणित्ता अप्पाणं जाणगं सभावेण। परिवज्जामि ममत्तिं उवट्ठिदो णिम्ममत्तम्हि ॥ 200॥
अर्थात् इससे (अर्थात् शुद्धात्मा में प्रवृत्ति द्वारा ही मोक्ष होता होने से) इस प्रकार आत्मा को स्वभाव से ज्ञायक जानकर, मैं निर्ममत्व में स्थित रहता हुआ ममता का त्याग करता हूँ।
12. श्री नियमसार गाथा 38 तथा 50 में कहा है कि - जीवादिबहित्तच्चं हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा। कम्मोपाधिसमुब्भवगुणपज्जाएहिं वदिरित्तो॥38॥
अर्थात् जीवादि बाह्यतत्व हेय (त्यागने योग्य) हैं; कर्मोपाधि -नजित गुण पर्यायों से व्यतिरिक्त आत्मा, आत्मा को उपादेय है।
पुव्वुत्तसयलभावा परदव्वं परसहावमिदि हेयं। सगदव्वमुवादेयं अंतरतच्चं हवे अप्पा॥ 50॥
अर्थात् पूर्वोक्त सर्व भाव परस्वभाव हैं, परद्रव्य हैं, इसलिए हेय हैं; अन्त:तत्त्व ऐसा स्वद्रव्य - आत्मा उपादेय है।
13. श्री नियमसार गाथा 14 की टीका, कलश 24 तथा गाथा 15 की टीका कलश 27 में कहा है कि -
अथ सति परभावे शुद्धमात्मानमेकं सहजगुणमणीनामाकरं पूर्णबोधम्।