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प्रकरण छठवाँ
अर्थात् इस शास्त्र का निचोड़ यह है और यही परमतत्त्व का पोषक है कि शुद्धनय की रीति छोड़ने से बन्ध और शुद्धनय की रीति ग्रहण करने से मोक्ष होता है।
9. श्री समयसार नाटक के बन्धद्वार, श्लोक 32 में कहा है कि - असंख्यात लोक परवांन जे मिथ्यात भाव,
तेई विवहार भाव केवली-उकत हैं। जिन्हको मिथ्यात गयौ सम्यक दरस भयौ,
ते नियत-लीन विवहारसौं मुकत हैं॥ निरविकलप निरुपाधि आतम समाधि,
साधि जे सुगुन मोख पंथकौं ढुकत हैं। तेई जीव परम दसामैं थिररूप द्वैकै,
धरममैं धुके न करमसौं रुकत हैं॥32॥ अर्थात् असंख्यात लोक प्रमाण जो मिथ्यात्व भाव है, वह व्यवहारभाव है - ऐसा केवली भगवान कहते हैं। जिस जीव के मिथ्यात्व का नाश होने से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, वह व्यवहार से मुक्त होकर निश्चय में लीन होता है और वह निर्विकल्प, निरुपाधिमय आत्मानुभव को साधकर सच्चे मोक्षमार्ग में लग जाता है और वही परमध्यान में स्थिर होकर निर्वाण प्राप्त करता है, कर्मों से नहीं रुकता।
10 - श्री मोक्षपाहुड़ गाथा 31 में कहा है कि - जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकजम्मि। जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे ॥31॥