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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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इदमेवात्र तात्पर्य हेयः शुद्धनयो न हि। नास्ति बंधस्तदत्यागात्तत्त्यागाद्बन्ध एव हि ॥ 122॥
अर्थात् यहाँ यही तात्पर्य है कि शुद्धनय त्यागने योग्य नहीं है, क्योंकि उसके अत्याग से (कर्म का) बन्ध नहीं होता और उसके त्याग से बन्ध ही होता है। 122॥
7. श्री समयसार गाथा 271 की टीका, कलश 173 में कहा है कि - सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनैस्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः। सम्यनिश्चयमेकमेव तदमी निष्कम्पमाक्रम्य किं शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नति संतो धृतिम्॥ 173॥
अर्थात् आचार्यदेव कहते हैं कि सर्व वस्तुओं में जो अध्यवसान होते हैं, वे भी (अध्यवसान) जिन भगवन्तों ने, पूर्वोक्त रीति से त्यागने से योग्य कहे हैं; इसलिए हम ऐसा मानते हैं कि 'पर जिसका आश्रय है - ऐसा व्यवहार ही सारा छुड़ाया है' - तो फिर सत्पुरुष एक सम्यनिश्चय को ही निष्कम्परूप से अङ्गीकार करके शुद्ध ज्ञानघनस्वरूप निज महिमा में - (आत्मस्वरूप में) स्थिरता क्यों धारण नहीं करते?
8. बनारसीदास रचित समयसार नाटक के आस्रव अधिकार में 13 वें श्लोक में कहा है कि - अशुद्धनय से बन्ध और शुद्धनय से मुक्ति :
यह निचोर या ग्रन्थ कौ, यहै परम रस पोख, तजै शुद्धनय बन्ध है, गहै शुद्धनय मोक्ष्ख॥13॥