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प्रकरण छठवाँ
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णयं णियदं। अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि॥14॥
अर्थात् जो नय, आत्मा को बन्धरहित और पर के स्पर्शरहित, अन्यपने रहित, चलाचलतारहित, विशेषरहित, अन्य के संयोग रहित - ऐसे पाँच भावरूप देखता है; हे शिष्य! उसे तू शुद्धनय जान।
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुटुं अणण्णमविसेसं। अपदेससंतमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं ॥ 15॥
अर्थात् जो पुरुष, आत्मा को अबद्धस्पष्ट, अनन्य, अविशेष [तथा उपलक्षण से नियत और असंयुक्त] देखता है, वह सर्व जिनशासन को देखता है, कि जो जिनशासन बाह्य द्रव्यश्रुत तथा अभ्यन्तर ज्ञानरूप भावश्रुतवाला है।
5. श्री समयसार गाथा 16 की टीका के नीचे कलश 18 में कहा है कि -
परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषैककः। सर्वभावान्तरध्वंसिस्वभावत्वादमेचकः॥18॥ अर्थात् शुद्ध निश्चयनय से देखा जाए तो प्रगट ज्ञायकज्योति मात्र से आत्मा एकस्वरूप है, क्योंकि शुद्ध-शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से सर्व अन्य द्रव्य के स्वभावों तथा अन्य के निमित्त से होनेवाले विभावों को दूर करनेरूप उसका स्वभाव है, इसलिए वह 'अमेचक' है - शुद्ध एकाकार है। ___6. श्री समयसार गाथा 179-80 की टीका में नीचे कलश 122 में कहा है कि -