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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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ववहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिदो दुसुद्धणओ।
भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो॥11॥ अर्थात् व्यवहारनय अभूतार्थ है और शुद्धनय भूतार्थ है - ऐसा ऋषीश्वरों ने दर्शाया है। जो जीव, भूतार्थ का आश्रय करता है, वह जीव निश्चय से सम्यग्दृष्टि है।
2. श्री समयसार कलश 6, में कहा है कि -
इस आत्मा को अन्य द्रव्यों से भिन्न देखना (श्रद्धा करना) ही नियम से सम्यग्दर्शन है। कैसा है आत्मा? अपने गुण-पर्यायों में व्याप्त होनेवाला है। पुनश्च कैसा है? शुद्धनय से एकत्व में निश्चित किया गया है। पुनश्च कैसा है? पूर्ण ज्ञानधन है। पुनश्च, जितना सम्यग्दर्शन है, उतना ही आत्मा है। इसलिए आचार्य प्रार्थना करते हैं कि नव तत्त्वों की परिपाटी छोड़कर, यह एक आत्मा ही हमें प्राप्त हो।
3. श्री समयसार कलश 7 में कहा है कि -
तत्पश्चात् शुद्ध नयाधीन जो भिन्न आत्मज्योति है, वह प्रगट होती है, कि जो नव तत्त्वों में प्राप्त होने पर भी अपने एकत्व को नहीं छोड़ती। 4. श्री समयसार गाथा 13-14-15 में कहा है कि - भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च।
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥ 13॥ अर्थात् भूतार्थनय से जाने हुए जीव, अजीव और पुण्य, पाप तथा आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष - यह नव तत्त्व सम्यक्त्व हैं।