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प्रकरण छठवाँ
निमित्तकर्ता-हेतुकर्ता कहा जाता है। अन्य निमित्तों से उनका प्रकार भिन्न बतलाने के लिए ऐसा कहा जाता है, किन्तु ऐसा ज्ञान कराने के लिए नहीं कि वे निमित्त, उपादान का कुछ भी कार्य करते हैं। 'सर्व प्रकार के निमित्त, उपादान के प्रति धर्मास्तिकायवत् उदासीन कारण हैं।'
(इष्टोपदेश, गाथा 35) ___7. जब जीव-पुद्गल गति करें, तब धर्मास्तिकाय की उपस्थिति न हो - ऐसा नहीं हो सकता; उसी प्रकार जब क्षणिक उपादान कार्य के लिए तैयार हो, तब अनुकूल निमित्त उपस्थिति न हो - ऐसा नहीं होता। ____8. निमित्तकारण, उपादानकारण के प्रति निश्चय से (वास्तव में) अकिञ्चित्कर (कुछ न करनेवाला) है, इसलिए उसे निमित्तमात्र, बलाधानमात्र, सहायमात्र, अहेतुवत् - ऐसे शब्दों द्वारा सम्बोधित किया जाता है।
9. निमित्त ऐसा घोषित करता है कि उपादान का कोई कार्य मैंने नहीं किया; मुझमें उसका कार्य करने की शक्ति नहीं है, किन्तु वह कार्य उपादान अकेले ने किया है।
10. निमित्त, व्यवहार और परद्रव्य है अवश्य, किन्तु वे आश्रय करने योग्य नहीं है, इसलिए हेय हैं।
[देखो, श्री समयसार गाथा 116 से 120 की टीका-श्री जयसेनाचार्यकृत, द्रव्यसंग्रह गाथा 23 की टीका तथा सिद्धचक्र विधान पूजा छठवीं की जयमाला। (कवीश्वर सन्तलाल कृत) जय परनिमित्त व्यवहार त्याग...]
11. जितने कार्य हैं, उतने निमित्तों के स्वभाव के भेद हैं, किन्तु एक भी स्वभाव भेद ऐसा नहीं है कि जो पर का / उपादान का कोई कार्य वास्तव में करें।