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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 195 ध्रुव उपादानकारण को तथा निमित्तकारण को माने, किन्तु क्षणिक उपादानकारण को न माने, (3) कोई क्षणिक उपादानकारण को माने, किन्तु ध्रुव उपादान तथा निमित्तकारणों को न माने, (4) कोई निमित्तकारण को ही माने, किन्तु ध्रुव और क्षणिक उपादानकारणों को न माने - उसकी यह चारों प्रकार की मान्यताएँ मिथ्या हैं। 2. उपादान का कार्य उपादान से ही होता है। निमित्तकारण, कार्य-काल में होता है, किन्तु उस निमित्तकारण की प्रतीक्षा करनी पड़ती है या उसे मिलाना पड़ता है - ऐसा कोई मानता है तो उसकी यह मान्यता मिथ्या है। ____ 3. निमित्त पर है, इसलिए उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता; तथापि कोई बाह्य सामग्रीरूप निमित्तकारण ढूँढ़ने के निरर्थक कार्य में रुके, तो उसे आकुलता हुए बिना नहीं रहेगी। ____4. निमित्त के साथ का सम्बन्ध एक समय पर्यन्त होता है - ऐसा सूक्ष्मदृष्टिवान जानता है। छद्मस्थ का ज्ञानोपयोग असंख्यात समय का है, इसलिए निमित्त मिलाने की शोध व्यर्थ है। 5. निमित्त अपना उपादान है और स्व उपादानरूप से अपना कार्य अपने में करता है। यदि वह पर उपादान का कार्य अंशतः भी करे, अर्थात् पर उपादान को वास्तव में असर करे, उसे आधार दे, उस पर प्रभाव डाले, उसे लाभ-हानि करे, मदद करे, शक्ति दे - आदि; तो निमित्त ने दो कार्य किये - एक अपना और दूसरा परउपादान का - ऐसा सिद्ध होगा; और ऐसा माननेवाला द्विक्रियावादी होने से, वह अरिहन्त के मत का नहीं है। 6. गतिमानादि निमित्तों को (असद्भूत व्यवहारनय से)
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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