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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
उत्तर - (1) बलाधान का व्युत्पत्ति अर्थ :- बल + आधान = बल का धारण - ऐसा होता है ।
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(2) उपादानकारण अपना कार्य करने का बल स्वयं अपने से धारण करे, उस समय जो निमित्त हो, उसे बलाधानकारण कहा जाता है। निमित्त वास्तव में उपादान को किञ्चित् बल नहीं दे सकता - ऐसा बतलाने के लिए बलाधान मात्र निमित्त को कहा जाता है। जिसके दृष्टान्त
(1) ...वह इन्द्रियज्ञानवाला जीव स्वयं अमूर्त होने पर भी मूर्त ऐसे पञ्चेन्द्रियात्मक शरीर को प्राप्त होता हुआ, ज्ञप्ति उत्पन्न होने में बल धारण का निमित्त होता है, इसलिए जो उपलंभक (बतलानेवाला, जानने में निमित्तभूत) है, ऐसे उस मूर्त (शरीर) द्वारा मूर्त ऐसी स्पर्शादिप्रधान वस्तु को - कि जो योग्य हो उसका, अवग्रहण करके, कदाचित् उसके ऊपर-ऊपर की (अवग्रह से आगे-आगे की ) शुद्धि के सद्भाव के कारण उसे जानता है.... (प्रवचनसार, गाथा 55 की टीका)
(2) तत्त्वार्थसार अध्याय 2, सूत्र 39 में कहा है कि क्रियाहेतुत्वमेतेषां निष्क्रियाणां न हीयते ।
यतः खलु बलाधानमात्रमत्र विविक्षितम् ॥ 39 ॥ अर्थात् धर्मास्तिकाय निष्क्रिय होने पर भी उसका क्रियाहेतुपना नाश को प्राप्त नहीं होता, जिससे उसे वास्तव में बलाधान मात्र कहा जाता है।
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(3) जिस प्रकार उपकार और आलम्बन - इन शब्दों का अर्थ निमित्त होता है; उसी प्रकार बलाधान का भी वैसा ही अर्थ