________________
192
प्रकरण छठवाँ
(3) समयसार, बन्ध अधिकार की गाथाओं में ऐसा समझाया है कि आत्मा का ध्रुवस्वभाव अबन्ध है, उसका जो आश्रय नहीं करते, उन्हीं को भाव तथा द्रव्यबन्ध होता है और जो ध्रुवस्वभाव का आश्रय करते हैं, उन्हें भाव तथा द्रव्यबन्ध नहीं होता। [सम्यग्दृष्टि को अपनी निर्बलता के कारण अल्प बन्ध होता है, उसे गौण माना है।]
(4) समयसार, गाथा 312 से 315 में भी तदनुसार बतलाया है। गाथा 314 में तो कहा है कि जहाँ तक आत्मा, प्रकृति के निमित्त से उत्पन्न होना – नष्ट होना नहीं छोड़ता, वहाँ तक वह अज्ञायक है, मिथ्यादृष्टि है, असंयत है।
(5) प्रवचनसार, ज्ञेय अधिकार, गाथा 186 में अशुद्ध - परिणाम, आत्मद्रव्य से (द्रव्यजातस्य) स्व-द्रव्य से उत्पन्न होते हैं - ऐसा कहा है, अर्थात् रागादि विकार, जीव के अपने अशुद्ध उपादान के कारण होते हैं; द्रव्यकर्म तो निमित्तमात्र हैं। इसलिए कर्म का उदय जीव को विकार कराने के लिए निमित्त होकर आता है - ऐसा भी नहीं है, किन्तु संसारदशा में आत्मा, परद्रव्य परिणाम को (पुद्गलकर्मपरिणाम को) निमित्तमात्र करता है, (निमित्त बनाता है) - ऐसे केवल स्वपरिणाममात्र के (वे स्वपरिणाम स्वद्रव्यपनेरूप होने से) कर्तृत्व का अनुभव करता है।
भावार्थ - अभी संसारदशा में जीव, पौद्गलिक कर्मपरिणाम को निमित्तमात्र करके अपने अशुद्धपरिणाम का ही कर्ता होता है।
(प्रवचनसार, गाथा 186) प्रश्न 52 - बलाधान का क्या अर्थ है? तथा बलाधान कारण किसे कहते हैं?