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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 191 उज्जलता भासै जब वस्तु को विचार कीजै, पुरी की झलक सौं वरन भाँति-भाँति है। तेसें जीव दरव कौं पुग्गल निमित्तरूप, ताकी ममता सो मोह-मदिरा की भाँति है; भेदग्यान दृष्टिसौं सुभाव साधि लीजै तहाँ, साँची सुद्ध चेतना अवाची सुख सांति है॥34॥ अर्थात् जिस प्रकार स्वच्छ और श्वेत सूर्यकान्त अथवा स्फटिक मणि के नीचे अनेक प्रकार के रङ्गीन डांक रखे जाएँ तो वे अनेक प्रकार के रङ्ग-बिरङ्गे दिखने लगते हैं, और यदि वस्तु के मूल स्वरूप का विचार किया जाए तो उज्ज्वलता ही दिखाई देती है। उसी प्रकार जीवद्रव्य को पुद्गल तो मात्र निमित्तरूप है, (किन्तु) उसकी ममता के कारण से मोह-मदिरा की उन्मत्तता होती है तथापि भेदविज्ञान द्वारा स्वभाव का विचार किया जाए तो सत्य और शुद्ध चैतन्य की वचनातीत सुख शान्ति प्रतीत होती है। 34॥ ____ (2) ऊपर की गाथा, टीका और उसके कलश के अनुसंधान में समयसार गाथा 280 में इस विषय का स्पष्टीकरण किया गया है। वहाँ बतलाया है कि - वस्तु-स्वभाव को जाननेवाले ज्ञानी (आत्मा) अपने शुद्धस्वभाव से ही च्युत नहीं होते, वे कर्म का उदय होने पर भी राग-द्वेष-मोहभाव के कर्ता नहीं होते; और गाथा 281 में कहा है कि वस्तु-स्वभाव को न जाननेवाले ऐसे अज्ञानी जीव, कर्म के साथ एकत्वबुद्धि करते हैं और भेदज्ञान नहीं करते; इसलिए वे कर्म के उदय में युक्त होकर राग-द्वेष-मोहादि भाव के कर्ता होते हैं।
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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