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________________ 190 प्रकरण छठवाँ शुभभाव को वे धर्म या धर्म का कारण नहीं मानते, परन्तु उसे आस्रव जानकर दूर करना चाहते हैं; इसलिए जब वह शुभभाव दूर हो जाता है, उस समय जो शुभभाव टला, उसे शुद्धभाव (धर्म) का परम्परा कारण कहा जाता है; साक्षात्रूप से वह भाव शुभास्रव होने से बन्ध का कारण है, और जो बन्ध का कारण हो, वह संवर का कारण नहीं हो सकता।' (स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित ( हिन्दी आवृत्ति ) मोक्षशास्त्र, अध्याय 7, की भूमिका) [अपनी प्रज्ञा के अपराध से शास्त्र के अर्थ को तथा आगेपीछे की गाथाओं की सन्धि को न समझाानेवाले, जीव की अवस्था में रागादि होने के सम्बन्ध में स्फटिक के द्ष्टान्त द्वारा प्ररूपणा करते हैं, तत्सम्बन्धी स्पष्टीकरण -] प्रश्न 51- श्री सयमसार, बन्ध अधिकार, गाथा 278-79 में स्फटिक, स्वभाव से शुद्ध होने पर भी, लाल आदि रङ्गों के संयोग से लालादिरूप किया जाता है, उसी प्रकार आत्मा स्वभाव से शुद्ध होने पर भी, अन्य द्रव्यों द्वारा रागी आदि किया जाता है - ऐसा कहा है. इससे ऐसा माना जाए कि 'जैसा कर्म का उदय हो, तदनुसार ही-तद्रुप ही-जीव को विकार करना पड़ता है - ऐसा वस्तु का स्वभाव है' - तो यह मान्यता ठीक हैं ? उत्तर - 1. नहीं; (यह मान्यता झूठी है)। इस विषय का स्पष्टीकरण श्री समयसार नाटक बन्धद्वार में निम्नानुसार किया है कि - "जैसे नाना वरन पुरी बनाई दीजै हेठ, उज्ज्वल विमल मनि सूरज-करांति है;
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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