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प्रकरण छठवाँ
व्यवहारेण निमित्त भवति । निश्चयेन पुनः अशुद्धोपादानकारणं स्वकीय रागादि अज्ञानभाव एव । 164-165।
(4) जीव का रागादि विकाररूप परिणमन निश्चय से (वास्तव में) निरपेक्ष है । (पञ्चास्तिकाय, गाथा 62 की टीका के आधार पर ) (5) तत्त्वदृष्टि से आत्मा ज्ञाता है और कर्म ज्ञेय है, इसलिए उनके बीच ज्ञाता - ज्ञेय सम्बन्ध है परन्तु जो ऐसे ज्ञाता - ज्ञेय के सम्बन्ध को चूकते हैं, वे ही जीव, रागादि विकाररूप परिणमन करते हैं और उन्हें द्रव्यकर्म का उदय निमित्तमात्र कारण, अर्थात् व्यवहारकारण कहा जाता है ।
- इससे ऐसा समझना कि निमित्त (परवस्तु) जीव को पराधीन करता है, बिगाड़ता है अथवा सुधारता है - ऐसी परतन्त्रता माननेरूप मिथ्यादृष्टिपना छोड़कर स्वाश्रयी सच्ची दृष्टि करना योग्य है।
प्रश्न 49 - साक्षात् और परम्पराकारण किसे कहते हैं ? उत्तर - उपादानकारण को साक्षात् कारण और निमित्त को परम्पराकारण कहा जाता है। उसके दृष्टान्त
(1) ... यह चारों लक्षण ( 1. देव, गुरु, धर्म का श्रद्धान; 2. तत्त्वश्रद्धान; 3. स्व-पर का श्रद्धान; और 4 आत्मश्रद्धान) मिथ्यादृष्टि को आभासमात्र होते हैं तथा सम्यग्दृष्टि को सच्चे होते हैं। वहाँ आभासमात्र हैं, वे नियमरहितरूप से सम्यक्त्व परम्परा कारण हैं तथा सच्चे हैं, वे नियमरूप (सम्यक्त्व के ) सक्षात् कारण हैं । (मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 491, दिल्ली प्रकाशन ) (2) मिथ्यादृष्टि के राग के अंश से अनेक दोषों की परम्परा