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प्रकरण छठवाँ
अर्थात् जहाँ निजशक्तिरूप उपादान हो, वहाँ परनिमित्त होता ही है। उसके द्वारा भेदज्ञान प्रमाण की विधि (व्यवस्था) है। यह सिद्धान्त कोई विरले ही समझते हैं।
भावार्थ - जहाँ उपादान की योग्यता हो, वहाँ नियम से निमित्त होता ही है। निमित्त की प्रतीक्षा करना पड़े - ऐसा नहीं होता; और निमित्त को हम जुटा सकते हैं - ऐसा भी नहीं होता। निमित्त की प्रतीक्षा करनी पड़ती है या उसे मैं ला सकता हूँ - ऐसी मान्यता, परपदार्थ में अभेदबुद्धि, अर्थात् अज्ञानसूचक है। उपादान और निमित्त दोनों असहायरूप स्वतन्त्र है, यह उनकी मर्यादा है। (3) उपादान बल जहँ तहाँ, नहिं निमित्त को दाव;
एक चक्र सौं रथ चलै, रवि को यहै स्वभाव। अर्थात् जहाँ देखो, वहाँ उपादान का ही बल है; (निमित्त होता है) परन्तु निमित्त का (कार्य करने में) कोई भी दाव (बल) नहीं है। एक चक्र से रवि (सूर्य) का रथ चलता है, वह उसका स्वभाव है।
(बनारसी विलास) [उसी प्रकार प्रत्येक कार्य उपादान की योग्यता से (सामर्थ्य से) ही होता है।] प्रश्न 28 -
हौं जानै था एक ही, उपादान सों काज, थकै सहाई पौन बिन, पानी माँहि जहाज।
(बनारसी विलास) अर्थात् अकेले उपादान से कार्य होता हो तो पवन की सहायता के बिना जहाज पानी में क्यों नहीं चलता?