________________
श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
167
उत्तर - (1) सधै वस्तु असहाय जहँ, तहँ निमित्त है कौन;
ज्यों जहाज परवाह में, तिरै सहज बिन पौन। अर्थात् जहाँ प्रत्येक वस्तु स्वतन्त्ररूप से अपनी अवस्था को (कार्य को) प्राप्त करती है, वहाँ निमित्त कौन है? जिस प्रकार जहाज प्रवाह में सहज ही बिना पवन के तरता है।
भावार्थ - जीव और पुद्गलद्रव्य, शुद्ध या अशुद्ध अवस्था में स्वतन्त्ररूप से ही अपने में परिणमन करते हैं । अज्ञानी जीव भी स्वतन्त्ररूप से निमित्ताधीन होकर परिणमन करता है; कोई निमित्त उसे आधीन नहीं कर सकता। (1) उपादान विधि निर्वचन, है निमित्त उपदेश;
बसे जु जैसे देश में, करै सु तैसे भेष। अर्थात् उपादान का कथन निर्वचन (अर्थात् एक 'योग्यता' द्वारा ही होता है) है; उपादान अपनी योग्यता से अनेक प्रकार से परिणमन करता है; तब उपस्थित निमित्त पर भिन्न-भिन्न कारणपने का आरोप (भेष) आता है: उपादान की विधि निर्वचन होने से निमित्त द्वारा यह कार्य हुआ - ऐसा व्यवहार से कहा जाता है।
उपादान जब जैसा कार्य करता है, तब वैसे कारणपने का आरोप (भेष) निमित्त पर आता है; जैसे कि - कोई वज्रकायवान मनुष्य सातवें नरकगति के योग्य मलिनभाव धारण करता है, तो वज्रकाय पर नरक के कारणपने का आरोप आता है; और यदि जीव, मोक्ष के योग्य निर्मलभाव करता है तो उस वज्रकाय पर