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प्रकरण छठवाँ
परिणमित होता है; उसे विषय अकिञ्चितकर हैं, अर्थात कुछ नहीं करते। अज्ञानी लोग विषयों को सुख का कारण मानकर व्यर्थ ही उनका अवलम्बन करते हैं। (प्रवचनसार, गाथा 67 का भावार्थ) ___ (2) 'जो हेतु कुछ भी नहीं करता, वह अकिञ्चितकर कहलाता है। ( श्री समयसार गाथा 267 की टीका) एक द्रव्य का व्यापार दूसरे द्रव्य में होता ही नहीं। उक्त कथन से सिद्ध होता है कि आत्मा को इन्द्रियजन्य ज्ञान और सुख होने में शरीर, इन्द्रियाँ तथा उनके विषय अनुत्पादक होने से अकिञ्चितकर हैं...
(पञ्चाध्यायी, भाग 2, गाथा 356 का भावार्थ) (3) तत्त्वदृष्टि से देखने पर राग-द्वेष को उत्पन्न करनेवाला अन्य द्रव्य जरा भी (किंचनापि) दिखलाई नहीं देता।
(समयसार, कलश 219) (4) इस आत्मा में जो राग-द्वेषरूप दोषों की उत्पत्ति होती है, वहाँ परद्रव्यों का कुछ भी दोष नहीं है; वहाँ तो स्वयं अपराधी ऐसा यह अज्ञान ही फैलता है...
(समयसार, कलश 220) (5) ...इस प्रकार अपने स्वरूप से ही जाननेवाले ऐसे आत्मा को अपने-अपने स्वभाव से ही परिणमित होनेवाले शब्दादिक किञ्चितमात्र भी विकार नहीं करते। जिस प्रकार अपने स्वरूप से ही प्रकाशित ऐसे दीपक को घटपटादि पदार्थ विकार नहीं करते उसी प्रकार। ऐसा वस्तु स्वभाव है, तथापि जीव, शब्द को सुनकर, रूप को देखकर, गन्ध को सूंघकर, रस का आस्वादन कर, स्पर्श का स्पर्शन कर, गुण-द्रव्य को जानकर, उन्हें अच्छा-बुरा मानकर राग-द्वेष करते हैं. वह अज्ञान ही है।
(समयसार, गाथा 373 से 382 का भावार्थ)