________________
160
प्रकरण छठवाँ
अन्य जो गुरु, शत्रु आदि हैं, वे प्रकृत कार्य के उत्पादन में या विध्वंस में सिर्फ निमित्तमात्र हैं। वहाँ योग्यता में ही साक्षात् साधकपना है।
(इष्टोपदेश, गाथा 35 की टीका) (2) ...वैभाविक परिणमन निमित्त सापेक्ष होकर भी वह अपनी इस काल में प्रगट होनेवाली योग्यतानुसार ही हैं।... अपनी योग्यतावश ही जीव संसारी है और अपनी योग्यतावश ही वह मुक्त होता है। जैसे परिणमन का साधारण कारण होते हुए भी, द्रव्य अपने उत्पादव्ययस्वभाव के कारण ही परिणमन करता है; काल उसका कुछ प्रेरक नहीं है। आगम में निमित्त विशेष का ज्ञान कराने के लिए ही कर्म का उल्लेख किया गया है। उसे कुछ प्रेरक कारण नहीं मानना चाहिए। जीव पराधीन है - यह कथन निमित्त विशेष का ज्ञान कराने के लिए ही किया जाता है। तत्त्वतः प्रत्येक परिणमन होता है अपनी योग्यतानुसार ही।
( पण्डित फूलचन्दजी द्वारा सम्पादित पञ्चाध्यायी,
गाथा 61 से 70 का विशेषार्थ) (3) श्री गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 580 की संस्कृत टीका के श्लोंक में कहा है कि
निमित्तांतरं तत्र योग्यता वस्तुनि स्थिता। यहिर्निश्चयकालस्तु निश्चितं तत्त्वदर्शिभिः॥1॥ अर्थात् उस वस्तु में विद्यमान परिणमनरूप जो योग्यता, वह अन्तरङ्ग निमित्त है और उस परिणमन का निश्चयकाल बाह्य निमित्त (कारण) है - ऐसा तत्त्वदर्शियों ने निश्चय किया है।
[यहाँ अन्तरङ्ग निमित्त का अर्थ उपादानकारण होता है।