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हेतु हैं, इसलिए वे अहेतु समान (अहेतुवत्) हैं।
प्रकरण छठवाँ
(पञ्चाध्यायी, भाग 2, गाथा 351 )
(4) यदि स्पर्शादिक विषय स्वतन्त्ररूप से ज्ञान को उत्पन्न करते हों तो उन ज्ञानशून्य घटादिक में भी वे ज्ञान क्यों उत्पन्न नहीं करते ?
( पञ्चाध्यायी, भाग 2, गाथा 354 )
(5) यदि ऐसा कहा जाए कि चेतन द्रव्य में ही किसी जगह वे स्पर्शादिक पदार्थ ज्ञान को उत्पन्न करते हैं, किन्तु यदि आत्मा स्वयं चेतन है तो फिर अचेतन पदर्थों ने उसमें क्या उत्पन्न किया ? अर्थात् कुछ भी नहीं। (पञ्चाध्यायी, भाग 2, गाथा 355 ) (6) इसलिए ऐसा निश्चित होता है कि आत्मा को ज्ञान और सुख उत्पन्न करने में शरीर, पाँचों इन्द्रियाँ तथा उनके विषयों का अकिञ्चित्करपना है । ( पञ्चाध्यायी, भाग 2, गाथा 356 )
[ जो हेतु कुछ भी नहीं करता, वह अकिञ्चित्कर कहलाता
( समयसार, गाथा 267 का भावार्थ )
प्रश्न 22 - अन्तरङ्ग कारण से ( उपादानकारण से) ही कार्य की उत्पत्ति होती है - ऐसा न माना जाए तो क्या दोष आयेगा ?
है]
उत्तर - (1) कार्य की उत्पत्ति में स्वस्थिति कारण होती है, उसमें अन्य हेतु (कारण) नहीं है । फिर भी कोई हेतु ' है - ऐसा माना जाए तो अनवस्था का दोष आयेगा ।
(पञ्चाध्यायी, भाग 2, गाथा 799, पण्डित फूलचन्दजी द्वारा सम्पादित) (2) यहाँ मित्रद्वैत से एक उपादान और दूसरा सहकारी कारण लिया गया है ... वस्तु में कार्यकारीपने की योग्यता अन्य वस्तु के निमित्त से नहीं आती, यह तो उसका स्वभाव है। इस पर