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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
आत्मभावना के बल से मोह भावरूप परिणमित न हो तो बन्ध नहीं होता । पुनश्च कर्म के उदयमात्र से बन्ध नहीं होता । यदि उदयमात्र से बन्ध होता हो तो संसारी को सर्वदा ही कर्म का उदय विद्यमान होने से सदैव ही बन्ध होता रहेगा; मोक्ष कभी होगा ही नहीं ।'
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(4) 'द्रव्यकर्मरूप प्रत्ययों (आस्रवों) का विद्यमानपना होने पर भी यदि जीव, रागादिभाव न करे तो बँधता नहीं है। यदि रागादि के अभाव में द्रव्यप्रत्यय के उदयमात्र से जीव को बन्ध तो सर्वदा बन्धन चालू ही रहेगा, क्योंकि संसारी को सर्वदा कर्मोदय विद्यमान होता है । '
(पञ्चास्तिकाय, गाथा 149 की श्रीजयसेनाचार्यकृत टीका) प्रश्न 20 - परिणमन में (कार्य में) उपादान और निमित्त - यह दोनों कारण होते हैं तो उसमें निमित्तकारण का कार्यक्षेत्र कितना ?
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उत्तर - (1) कार्य होने से पूर्व किसी को निमित्त नहीं कहा जाता। कार्य के काल में जो उचित (अनुकूल) संयोगरूप परवस्तु उपस्थित हो, उसे निमित्तकारण कहते हैं ।
उपादान के बिना पर के कार्य का निमित्त नहीं कहा जा सकता; निमित्त तो मात्र किस उपादान ने कार्य किया, वह बतलानेवाला व्यजंक है। (पञ्चाध्यायी भाग-2, गाथा 358 के आधार से )
(2) निमित्त तो साक्षीभूत है; जिस प्रकार दुपहरिया (दोपहर के समय खिलनेवाला) फूल को विकासरूप होने में दोपहर के सूर्य का होना साक्षीभूत प्रत्यक्ष अवश्य दिखाई देता है ।
( आत्मावलोकन, पृष्ठ 102 ) (3) निमित्त परवस्तु है । उपादान को परिणमित होने में उसकी