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प्रकरण छठवाँ
(2) कर्म के उदय से जीव को विकार होता है - ऐसी मान्यता भ्रममूलक है। श्री दीपचन्दजी कृत 'आत्मावलोकन' पृष्ठ 143 में कहा है कि
_ 'हे मित्र... अन्यलोक, स्वांग (पुद्गलकर्म), स्कन्ध, परज्ञेय द्रव्यों का दोष न देख और ऐसा न जान कि 'परज्ञेय की सन्निधि (निकटता) निमित्तमात्र देखकर उसने (निमित्त ने) मेरा द्रव्य मलिन (विकारयुक्त) किया।' जीव स्वयं ऐसा झूठा भ्रम करता है, परन्तु उन परज्ञेयों से कभी तेरी भेंट (स्पर्श) भी नहीं हुई है। तथापि तू उनका दोष देखता है - जानता है, यह तेरा हरामजादीपना है। एक तू ही झूठा है, उनका कोई दोष नहीं है; वे तो सदैव सच्चे हैं।
प्रश्न 19 - जब कर्मों का तीव्र उदय हो, तब पुरुषार्थ नहीं हो सकता; ऊपर के गुणस्थानों से भी जीव नीचे गिर जाता है - ऐसे कथन का क्या अर्थ है ?
उत्तर - (1) यह व्यवहारनय का कथन है। जीव में ऐसी योग्यता हो, तब कैसा निमित्त होता है ? - उसका ज्ञान कराने के लिए यह कथन है।
(2) जीव स्वयं अपने विपरीत पुरुषार्थ से तीव्र दोष करता है, तभी कर्म के उदय को तीव्र उदय कहा जाता है, किन्तु यदि जीव यथार्थ पुरुषार्थ करे तो कर्म का चाहे जैसा उदय होने पर भी उसे निर्जरा कहा जाता है। कर्मोदय के कारण जीव गिरता ही नहीं।
(3) प्रवचनसार गाथा 45 की टीका में श्री जयसेनाचार्य कहते हैं कि - 'द्रव्यमोह का उदय होने पर भी, यदि शुद्ध