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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
निमित्त होने पर भी, पुद्गलकर्म और जीव के बीच व्याप्य - व्यापकभाव का अभाव होने के कारण कर्ता-कर्मपने की असिद्धि होने से जीव ही स्वयं अन्तर्व्यापक होकर संसार अथवा निःसंसार अवस्था में आदि-मध्य-अन्त में व्याप्त होकर अपने को ससंसार या निःसंसार करता हुआ, अपने एक को ही करता हुआ प्रतिभासि हो परन्तु अन्य को करता प्रतिभासित न हो...
(समयसार, गाथा 83 की टीका ) [ दृष्टान्त में वायु का चलना, वह सद्भावरूप निमित्त है और उनका असम्भव, वह अभावरूप निमित्त है ।]
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प्रश्न 18 - कर्म के उदय से जीव में सचमुच विकारभाव होता है - यह विधान ठीक है ?
उत्तर- (1) नहीं, क्योंकि 'जीव में होनेवाले विकारभाव वह स्वयं करता है, तब कर्म का उदय निमित्त है, किन्तु उन कर्म के रजकणों ने जीव को कुछ भी किया या उस पर असर / प्रभाव डाला - ऐसा मानना सर्वथा मिथ्या है। (उसी प्रकार जीव, विकार करता है, तब पुद्गल कार्माणवर्गणा स्वयं कर्मरूप परिणमित होती है - ऐसा निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध है ।) जीव को विकारीरूप से कर्म का उदय परिणमाता है और नवीन कर्मों को जीव परिणमाता यह निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध बतलानेवाला व्यवहार कथन
है । वास्तव में जीव, जड़ को कर्मरूप परिणमित नहीं कर सकता और कर्म, जीव को विकारी नहीं कर सकता ऐसा समझना । गोम्मटसारादि कर्म शास्त्रों के इस प्रकार अर्थ करना ही न्यायसंगत है । '
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( स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट से प्रकाशित हिन्दी आवृत्ति मोक्षशास्त्र - अध्याय 1, परिशिष्ट 1 )