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प्रकरण छठवाँ
रीति से देखा जाए तो शरीर और जीव की क्रियावतीशक्ति की उस समय की योग्यता ही वैसी थी; इसलिए तदनुसार गति हुई।
प्रश्न 13 - शीघ्र गति करती मोटरादि तो उसमें निमित्तमात्र है, किन्तु पुद्गलकर्म, मन, वचन, काय, इन्द्रियों का भोग, धन, परिजन, मकान, इत्यादि तो जीव को राग-द्वेषरूप परिणाम करने में प्रेरक हैं?
उत्तर - छहों द्रव्य सर्व, अपने-अपने स्वरूप से सदैव असहाय (स्वतन्त्र) परिणमन करते हैं; कोई द्रव्य किसी का प्रेरक कभी नहीं है; इसलिए कोई भी द्रव्य राग-द्वेष का प्रेरक नहीं है परन्तु जीव का मिथ्यात्व मोहरूप भाव है, वही (अनन्तानुबन्धी) राग-द्वेष का कारण है। (देखो, प्रकरण 5, प्रश्न 371 का उत्तर)
प्रश्न 14 - पुद्गलकर्म की बलजबरी से जीव को राग -द्वेष करना पड़ता है; पुद्गलद्रव्य कर्मों का वेष धारण करके जहाँ-जहाँ बल करता है, वहाँ-वहाँ जीव को राग-द्वेष अधिक होते हैं - यह बात सत्य है?
उत्तर - नहीं, क्योंकि जगत् में पुद्गल का संग तो सदैव रहता है। यदि उसकी बलजबरी से जीव को रागदि विकार हों तो शुद्धभावरूप होने का कभी अवसर ही नहीं आ सकेगा; इसलिए ऐसा समझना चाहिए कि शुद्ध या अशुद्ध परिणमन करने में चेतन स्वयं समर्थ है। (समयसार नाटक, सर्व अधिकार द्वार, कवित्त 61 से 66 )
प्रश्न 15 - निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध किसे कहते हैं ?
उत्तर - जब उपादान स्वयं स्वतः कार्यरूप परिणमित होता है, तब भावरूप या अभावरूप किस उचित (योग्य)