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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला अर्थात् अज्ञानी विशेष प्रकार के ज्ञानभाव को प्राप्त नहीं करता और विशेष ज्ञानी, अज्ञानपने को प्राप्त कहीं करता । गति को जिस प्रकार धर्मास्तिकाय निमित्त है; उसी प्रकार अन्य तो निमित्तमात्र है । 149 भावार्थ - तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति के लिए अयोग्य अभव्यादि जीव, धर्माचार्यादिकों के हजारों उपदेशों से भी तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। 'कार्य की उत्पत्ति करने के लिए कोई भी प्रयत्न स्वाभाविक गुण की अपेक्षा किया करता है। सैकड़ों व्यापारों से (प्रयत्नों से) भी बगुले को तोते की भाँति नहीं पढ़ाया जा सकता।' यहाँ शङ्का यह होती है कि ऐसे तो बाह्य निमित्तों का निराकरण ही हो जाएगा। इस विषय में उत्तर यह है कि अन्य जो गुरु आदिक तथा शत्रु आदिक हैं, वे प्रकृत कार्य के उत्पादन में तथा विध्वंसन (नाश) में केवल निमित्तमात्र हैं। वास्तव में कोई कार्य होने में या बिगड़ने में उसकी योग्यता ही साक्षात् साधक होती है..... (परमश्रुत प्रभावक मण्डल, मुम्बई से प्रकाशित- इष्टोपदेश, गाथा 35 की टीका ) प्रश्न 12 - कभी-कभी प्रेरक निमित्त, जैसे कि शीघ्र गति करती मोटर, ट्रेन आदि द्वारा अनिच्छित स्थान में गति आदि देखे जाते हैं, इसलिए उपादान को प्रेरक निमित्तों के आधीन परिणमित होना पड़ता है - यह ठीक है ? उत्तर - नहीं; किसी भी प्रेरक निमित्तों के आधीन उपादान की परिणमित होना पड़ता है ऐसा नहीं है, परन्तु इतना निश्चित होता है कि गतिक्रिया जीव की इच्छानुसार नहीं हो सकी । वास्तविक
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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