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प्रकरण पाँचवाँ
- ऐसे इष्ट विषयों को प्राप्त करके (अपने अशुद्ध) स्वभावरूप परिणमित होता हुआ आत्मा स्वयमेव सुखरूप (इन्द्रियसुखरूप) होता है; देह सुखरूप नहीं होती है। (प्रवचनसार, गाथा 65 अन्वयार्थ)
(2) शरीर, सुख-दुःख नहीं करता। देव का उत्तम वैक्रियिक शरीर सुख का कारण नहीं है या नारकी का शरीर दुःख का कारण नहीं है। आत्मा स्वयं ही इष्ट-अनिष्ट विषयों के वश होकर सुख -दुःख की कल्पनारूप परिणमित होता है।
(श्री प्रवचनसार, गाथा 66 भावार्थ) (4) स्व-पर के भेदज्ञान के अभाव से अज्ञानी जीव, पर में अर्थात् इन्द्रियों-विषयों में सुख-दुःख की मिथ्या कल्पना करके उनमें इष्ट-अनिष्ट की बुद्धि करके अपने को सुखी-दु:खी मानता है, किन्तु विषय तो जड़ हैं; वे इष्ट-अनिष्ट हैं ही नहीं और वस्तुस्वभाव ही ऐसा है कि एक द्रव्य दूसरे का कुछ नहीं कर सकता।
(5) ...इस प्रकार पदार्थों में इष्ट-अनिष्टपना है नहीं। यदि पदार्थों में इष्ट-अनिष्टपना हो तो जो पदार्थ इष्टरूप हो, वह सबको इष्टरूप ही होगा, किन्तु ऐसा तो नहीं होता; मात्र यह जीव स्वयं ही कल्पना करके उसे इष्ट -अनिष्टरूप मानता है परन्तु वह कल्पना मिथ्या है। (मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 159 देहली से प्रकाशित)
प्रश्न 29 - क्या निमित्त के बल से या प्रेरणा से कार्य होता है?
उत्तर - (1) नहीं; बात यह है कि जिस प्रकार कोई भी कार्य अन्य के आधीन नहीं है, और वह (कार्य अन्य की) बुद्धि अथवा प्रयत्न के भी आधीन नहीं है क्योंकि कार्य तो अपनी परिणमनशक्ति से ही होता है। यदि उसका बुद्धि और प्रयत्न के साथ मेल बैठ गया