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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
नहीं है; स्वभाव में लीन होने से वह विकार दूर हो जाता है । विका पर्याय अपनी है, इसलिए निश्चय कहा है, लेकिन विकार अपना स्थायी और असली स्वरूप नहीं है, इसलिए वह अशुद्ध है; इसलिए अशुद्ध निश्चयनय से वह जीवकृत है - ऐसा कहा है।
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प्रश्न 27 कभी-कभी जीव पर जड़कर्म का जोर बढ़ जाता है और कभी जड़कर्म पर जीव का जोर बढ़ जाता है - यह ठीक है ?
उत्तर- ( 1 ) नहीं; यह मान्यता यथार्थ नहीं है, क्योंकि जीव और जड़कर्म - यह दो पदार्थ त्रिकाल भिन्न-भिन्न हैं; उनका परस्पर अत्यन्त-अभाव है; इसलिए कोई किसी पर जोर नहीं
चलाता ।
(2) जीव जब विपरीत पुरुषार्थ करे, तब वह अपनी विपरीत वृत्तिको कर्म में युक्त करता है; उसे अपेक्षा से कर्म का जोर आरोप से कहा जाता है; और जब जीव अपने योग्य स्वभाव में सावधान होकर सीधा पुरुषार्थ करता है, तब वह अपना बल अपने में बढ़ाता हुआ, कर्म की ओर की वृत्ति क्रमशः छोड़ता जाता है; इसलिए ऐसा कहा जाता है कि जीव बलवान हुआ ।
(3) प्रत्येक द्रव्य का बल और शक्ति उसके स्वद्रव्य में है । कर्म की शक्ति जीव में नहीं जा सकती; इसलिए कर्म, जीव को कभी भी आधीन नहीं कर सकता।
प्रश्न 28 - इन्द्रियों के विषय भी आत्मा को सुख - दुःख नहीं दे सकते - इसका कारण क्या ?
उत्तर- (1) स्पर्शनादिक इन्द्रियाँ जिनका आश्रय करती हैं