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प्रकरण पाँचवाँ
व्यवतिष्ठमानो न कारकान्तरमपेक्षते। अत: कर्मणः कर्तुनास्ति जीव: कर्ता, जीवस्य कर्तुर्नास्ति कर्म कर्तृ निश्चयेति!"
अर्थात् कर्म वास्तव में... स्वयं ही षट् कारकरूप परिणमित होता है, इसलिए अन्य कारकों (अन्य के षटकारकों) की अपेक्षा नहीं रखता। उसी प्रकार जीव... स्वयं ही षट्कारकरूप से परिणमित होता है, इसलिए अन्य के षट् कारकों की अपेक्षा नहीं रखता; इसलिए निश्चय से कर्म का कर्ता जीव नहीं है और जीव का कर्ता कर्म नहीं है।
भावार्थ - निश्चय से पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादि कर्म योग्य पुद्गल स्कन्धोंरूप परिणमित होता है और जीवद्रव्य भी अपने औदयिकादि भावोंरूप से स्वयं परिणमित होता है। जीव और पुद्गल दोनों एक-दूसरे के कर्तव्य की अपेक्षा नहीं रखते।
(श्री पञ्चास्तिकाय, गाथा 62 की संस्कृत टीका) प्रश्न 26 - 'आत्मा अपनी योग्यता से ही राग (विकार) करता है; - ऐसा मानने से तो विकार, आत्मा का स्वभाव हो जाएगा; इसलिए रागादिक विकार को कर्मकृत मानना चाहिए' - क्या यह बात ठीक है?
उत्तर - विकार आत्मद्रव्य का त्रिकाली स्वभाव नहीं है, किन्तु क्षणिक योग्यतारूप पर्यायस्वभाव है। वर्तमान पर्याय में स्व को चूककर परद्रव्य का अवलम्बन किया जाए तो पर्याय में नयानया विकार होता है, किन्तु यदि स्वसन्मुखता की जाए तो वह दूर हो सकता है। जीव, राग-द्वेषरूप विकार पर्याय में स्वयं करता है; इसलिए अशुद्ध निश्चयनय से वह जीव का है। स्वभाव में विकार