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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 139 ऐसा माना जाए तो पुद्गलद्रव्य स्वभाव से ही मिथ्यात्वभावरूप सिद्ध होगा। यह क्या वास्तव में मिथ्या नहीं है।' (गाथा - 331) (11) जीव ने ही अपनी अज्ञान से भूल की है; उसमें बेचारा कर्म क्या करे? कहा है कि - कर्म विचारे कौन भूल मेरी अधिकाई, अग्नि सहे घनघात लोह की संगति पाई।' अर्थात् - कर्म बेचारा कौन? (किस गिनती में?) भूल तो मेरी ही बड़ी है। जिस प्रकार अग्नि, लोहे की सङ्गति करती है तो उसे घनों के आघात सहना पड़ते हैं, (उसी प्रकार यदि जीव, कर्मोदय में युक्त हो तो उसे राग-द्वेषादि विकार होते हैं।) (12) ...और तत्त्वनिर्णय करने में कहीं कर्म का दोष तो है नहीं किन्तु तेरा ही दोष है। तू स्वयं तो महन्त रहना चाहता है और अपना दोष कर्मादिक में लगाता है ! परन्तु जिन आज्ञा माने तो ऐसी अनीति संभव न हो। तुझे विषय-कषायरूप ही रहना है, इसलिए झूठ बोलता है। यदि मोक्ष की सच्ची अभिलाषा हो तो तू ऐसी युक्ति क्यों बनायें?... ___(मोक्षमार्गप्रकाशक, अध्याय 9 देहली से प्रकाशित, पृष्ठ 458) __ (13) "कर्म खलु... स्वयमेव षटकारकीरूपेण व्यवतिष्ठमान न कारकान्तरमपेक्षते। एवं जीव. स्वयमेव षटकारकीरूपेण 1. 'भद्राणमपि नश्यन्ति गुणाः येषां संसकर्गः खलैः। वैश्वानरो लोहेन मिलितः तेन पिट्टयते घनैः॥ अर्थ - दुष्टों(कर्म) के साथ जिनका सम्बन्ध है, उन भद्र (विवेकी) पुरुषों के भी गुण नष्ट हो जाते हैं, जैसे अग्नि लोहे के साथ मिलती है, तब वह घनों से पीटी जाती है - कूटी जाती है।' (देखो, परमात्मप्रकाश, अध्याय 2, श्लोक - 110)
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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