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प्रकरण पाँचवाँ
गुरु, कहैं छहों दर्व अपने अपने रूप, सबनिकौ सदा असहाई परिनौन है; कोउ दरब काहुकौ न प्रेरक कदाचि तातें,
रागदोष मोह मृषा मदिरा अचौन है। अर्थात् गुरु समाधान करते हैं कि छहों द्रव्य अपने-अपने स्वरूप में सदैव असहाय परिणमन करते हैं; इसलिए कोई द्रव्य, किसी द्रव्य की परिणति के लिए कभी भी प्रेरक नहीं होते, इसलिए राग-द्वेष का मूल कारण मोह / मिथ्यात्व का मदिरा पान है।
(समयसार नाटक, छन्द .......) (10) भावकर्म का कर्ता अज्ञानी जीव ही है - ऐसा श्री आचार्यदेव समयसार में युक्ति द्वारा निम्नानुसार सिद्ध करते हैं -
'यदि मिथ्यात्व नाम की (मोहनीयकर्म की) प्रकृति, आत्मा को मिथ्यादृष्टि बनाती है - ऐसा माना जाए तो तेरे मत में अचेतन प्रकृति (मिथ्यात्वभाव की) कर्ता हुई! (इसलिए मिथ्यात्वभाव अचेतन सिद्ध हुआ।)'
(समयसार, गाथा - 328) ___'अथवा, यह जीव, पुद्गलद्रव्य के मिथ्यात्व को करता है - ऐसा माना जाए तो पुद्गलद्रव्य मिथ्यादृष्टि सिद्ध होगा! - जीव
(गाथा - 329) 'अथवा यदि जीव और प्रकृति दोनों पुद्गलद्रव्य को मिथ्यात्व भावरूप करते हैं - ऐसा माना जाए तो, जो दोनों द्वारा किया गया, उसका फल दोनों भोगेंगे।'
(गाथा - 330) ___ 'अथवा यदि पुद्गलद्रव्य को मिथ्यात्वभावरूप न तो प्रकृति करती है और न जीव करता है; (दोनों में से कोई नहीं करता) -
नहीं!'