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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
कर्म में न पड़कर स्व को युक्त न करे तो जड़ का (कर्म का) कोई जोर नहीं है ।
(श्री दीपचन्दजी कृत अनुभवप्रकाश गुजराती आवृत्ति, पृष्ठ- 37 ) (8) अज्ञानी जीव, राग-द्वेष की उत्पत्ति परद्रव्य (कर्मादि) से मानकर परद्रव्य पर कोप करता है कि 'यह परद्रव्य मुझे रागद्वेष उत्पन्न करते हैं, उन्हें दूर करूँ ।' ऐसे अज्ञानी जीव को समझाने के लिए आचार्यदेव उपदेष देते हैं कि राग-द्वेष की उत्पत्ति अज्ञान से आत्मा में ही होती है और वे आत्मा के ही अशुद्धपरिणाम हैं, इसलिए उस अज्ञान का नाश करो; सम्यग्ज्ञान प्रगट करो; आत्मा ज्ञानस्वरूप है - ऐसा अनुभव करो; परद्रव्य को राग-द्वेष उत्पन्न करनेवाला मानकर उस पर कोप न करो।
( समयसार, कलश 220 का भावार्थ ) (9) कर्म का उदय, जीव को कोई असर नहीं कर सकता - यह बात श्री समयसार नाटक के सर्वविशुद्धि द्वार में निम्नानुसार समझाई है
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कोई शिष्य कहै स्वामी रागदोष परिनाम, ताको मूल प्रेरक कहहु तुम कौन है; पुग्गल करम जोग किधौं इन्द्रिनिकौ भोग, किधा धन कि परिजन किधौं भौन है ? अर्थात् शिष्य पूछता है कि हे स्वामी ! राग-द्वेष परिणामों का मूल प्रेरक कौन है, वह आप कहिये । (क्या वह) पौद्गलिक कर्म है ? योग (मन-वचन-काय की क्रिया) है ? इन्द्रियों का भोग है ? धन है ? परिजन हैं ? या मकान है ?