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प्रकरण पाँचवाँ
अर्थात् द्रव्यास्रव विद्यमान होने पर भी, जीव के रागादि भावास्रव के अभाव से, सर्व इष्ट-अनिष्ट विषयों में ममत्वभावरूप परिणमित न होनेवाले जीव बँधते नहीं है और यदि जीव को रागादि का अभाव होने पर भी द्रव्यास्रव के उदयमात्र से बन्ध हो तो संसारी जीवों को सर्वदा ही कर्मों का उदय होने से, सर्वदा बन्ध ही हो।
(श्री पञ्चास्तिकाय, गाथा 149 की जयसेनाचार्य कृत टीका) (5)...ज्ञानी को यदि पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्यय विद्यमान है तो भले हों, तथापि वे (ज्ञानी) तो निरास्रव ही हैं क्योंकि कर्मोदय का कार्य जो राग-द्वेष-मोहरूप आस्रवभाव, उसके अभाव में द्रव्यप्रत्यय बन्ध के कारण नहीं है (जिस प्रकार पुरुष को रागभाव हो, तभी यौवन प्राप्त स्त्री उसे वश कर सकती है; उसी प्रकार जीव को आस्रवभाव हो तभी उदय प्राप्त द्रव्यप्रत्यय नवीन बन्ध कर सकते हैं।)
(श्री समयसार गाथा 173 से 176 की टीका) (6) इससे सिद्ध होता है कि कर्मोदय. जीव को विकार कराता है, अर्थात् कर्मों का जैसा उदय हो, तदनुसार जीव को विकार करना पड़ता है - ऐसा नहीं है। जीव अपनी अज्ञानतावश कर्मोदय में युक्त हो, तभी वह कर्मोदय अपने विकार में निमित्तभूत कहलाता है, किन्तु यदि वह अपने आत्मस्वरूप में स्थिर होकर कर्मोदय में युक्त न हो तो वह कर्मोदय उसमें विकार का निमित्त नहीं होगा और न कर्म के नवीन बन्ध का निमित्तकारण बनेगा, किन्तु निर्जरा का कारण होगा।
(7) ... यह अविद्या तेरी ही फैलाई हुई है; तू अविद्यारूप