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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
(1) मोहकर्म का विपाक होने पर जीव जिस प्रकार का विकार करे, तदनुसार जीव ने फल भोगा कहलाता है। उसका अर्थ इतना है कि जीव को विकार करने में मोहकर्म का विपाक निमित्त है। कर्म का विपाक कर्म में होता है, जीव में नहीं होता । जीव को अपने विभावभाव का अनुभव हो, वह जीव का विपाक / अनुभव है। (मोक्षशास्त्र, अध्याय - 8, सूत्र 21 टीका )
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(2)...' औदयिकभाव' में सर्व औदयिकभाव बन्ध के कारण हैं - ऐसा नहीं समझना चाहिए, किन्तु मात्र मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग यह चार भाव, बन्ध के कारण हैं - ऐसा
जानना ।
( श्री धवला पुस्तक 7, पृष्ठ - 9-10 )
(3) औदयिका भावाः बन्धकारणम् - इसका अर्थ इतना ही है कि यदि जीव, मोह के उदय में युक्त हो तो बन्ध होता है । 'द्रव्यमोह का उदय होने पर भी यदि जीव, शुद्धात्मभावना के बल द्वारा भावमोहरूप परिणमित न हो तो बन्ध नहीं होता। यदि जीव को कर्म के उदयमात्र से बन्ध होता हो तो संसारी को सर्वदा कर्म के उदय की विद्यमानता से सर्वदा बन्ध ही होता रहे, कभी मोक्ष होगा ही नहीं; इसलिए ऐसा समझना कि कर्म का उदय बन्ध का कारण नहीं है, किन्तु जीव का भावमोहरूप परिणमन होना ही बन्ध का कारण है ।
(प्रवचनसार, गाथा 45 की श्री जयसेनाचार्य कृत टीका )
( 4 ) तेषां जीवगतरागादि भावप्रत्ययानामभावे, द्रव्यप्रत्यययेषु विद्यमानेष्वपि, सर्वेष्टानिष्टविषयममत्वा भावपरिणता जीवा न बध्यन्त इति । तथापि यदि जीवगतरागाद्यभावेऽपि द्रव्यप्रत्ययोदया -मात्रेण बंधो भवति तर्हि सर्वज्ञदेव बन्ध एव । कस्मात्। संसारिणां सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वादिति ।
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