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प्रकरण पाँचवाँ
होते; इसलिए वह बुद्धि निरर्थक होने से मिथ्या है - झूठी है ।
(समयसार, गाथा 266 का भावार्थ ) प्रश्न 24 - रोग के कारण दुःख और उसके अभाव में सुख होता है - ऐसी मान्यता में सत्यासत्यता क्या है ?
उत्तर - रोग, शरीर की अवस्था है। शरीर तो पुद्गल / जड़ है, उसे सुख-दुःख होता ही नहीं। जीव अपने अज्ञानपने से शरीर में एकत्वबुद्धि करे तो उसे सुख-दुःख मालूम होता है; और सच्चे ज्ञान द्वारा पर में एकत्वबुद्धि न करे तो उसे सुख - दुःख की वृत्ति उत्पन्न न हो।
ज्ञानी, शरीर को रोगग्रस्त दशा के कारण अपने को किञ्चित् दुःख नहीं मानते। उन्हें अपनी सहनशक्ति की निर्बलता से अल्प दुःख होता है, किन्तु वह गौण है, क्योंकि वे दुःख के स्वामी नहीं बनते । अपने ध्रुवस्वभाव की दृष्टि के बल से उनके राग-द्वेष दूर होते जाते हैं और ज्यों-ज्यों कषाय का अभाव होता जाता है, त्यों -त्यों उन्हें सुख का अनुभव निरन्तर वर्तता रहता है ।
.. सुखी - दुःखी होना इच्छानुसार समझना किन्तु बाह्य कारणों के आधीन नहीं... इच्छा होती है, वह मिथ्यात्व, अज्ञान और असंयम से होती है तथा इच्छामात्र आकुलतामय है और आकुलता ही दुःख है... मोह के सर्वथा अभाव से जब इच्छा का सर्वथा अभाव हो, तब सर्व दुःख दूर होकर सच्चा सुख प्रगट होता है ।
(मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ- 75-76)
प्रश्न 25 - क्या जीव, कर्म के उदय अनुसार विकार करता है ? उत्तर - नहीं; क्योंकि -
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