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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 127 द्रव्य का कर्ता नहीं है परन्तु पर्यायदृष्टि से किसी द्रव्य की पर्याय, किसी समय, किसी अन्य द्रव्य की पर्याय को निमित्त होती है; इसलिए इस अपेक्षा से एक द्रव्य के परिणाम, अन्य द्रव्य के परिणाम के निमित्तकर्ता कहलाते हैं। परमार्थतः द्रव्य अपने ही परिणामों का कर्ता है: अन्य के परिणामों का अन्य द्रव्य कर्ता नहीं है। (- श्री समयसार, गाथा 100 की टीका) जो इस प्रकार आत्मा का स्वरूप समझता है, उसे संयोग की पृथक्ता, विभाव की विपरीतता और स्वभाव के सामर्थ्य का भान होने से स्व-सन्मुखता प्राप्त होती है। जो पुरुष इस प्रकार 'कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा ही है' - ऐसा निश्चय करके वास्तव में परद्रव्यरूप परिणमित नहीं होता. वही परुष - जिसका परद्रव्य के साथ सम्पर्क रुक गया है और जिसके पर्यायें, द्रव्य के भीतर प्रलीन हो गयी हैं ऐसे - शुद्ध आत्मा को उपलब्ध करता है परन्तु अन्य कोई (पुरुष ऐसे शुद्ध आत्मा को उपलब्ध) नहीं करता। (- श्री प्रवचनसार गाथा 126 की टीका) प्रश्न 21 - क्या जीव, विकार स्वतन्त्ररूप से करता है? उत्तर - हाँ, क्योंकि - (1) ...पूर्व काल में बँधे हुए द्रव्यकर्मों का निमित्त पाकर' जीव अपनी अशुद्धचैतन्य शक्ति द्वारा रागादि भावों का (विकार का) कर्ता बनता है; तब (उसी समय) पुद्गलद्रव्य, रागादि भावों 1. उपादान से होनेवाला यह कार्य विकारी है, स्वभावभाव नहीं है, किन्तु अवस्तुभाव है - ऐसा बतलाने के लिए तथा निमित्त का ज्ञान कराने के लिए 'निमित्त पाकर' (इस) शब्द का उपयोग किया जाता है। (आत्मावलोकन, पृष्ठ 55)
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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