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श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला
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द्रव्य का कर्ता नहीं है परन्तु पर्यायदृष्टि से किसी द्रव्य की पर्याय, किसी समय, किसी अन्य द्रव्य की पर्याय को निमित्त होती है; इसलिए इस अपेक्षा से एक द्रव्य के परिणाम, अन्य द्रव्य के परिणाम के निमित्तकर्ता कहलाते हैं। परमार्थतः द्रव्य अपने ही परिणामों का कर्ता है: अन्य के परिणामों का अन्य द्रव्य कर्ता नहीं है।
(- श्री समयसार, गाथा 100 की टीका) जो इस प्रकार आत्मा का स्वरूप समझता है, उसे संयोग की पृथक्ता, विभाव की विपरीतता और स्वभाव के सामर्थ्य का भान होने से स्व-सन्मुखता प्राप्त होती है।
जो पुरुष इस प्रकार 'कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा ही है' - ऐसा निश्चय करके वास्तव में परद्रव्यरूप परिणमित नहीं होता. वही परुष - जिसका परद्रव्य के साथ सम्पर्क रुक गया है
और जिसके पर्यायें, द्रव्य के भीतर प्रलीन हो गयी हैं ऐसे - शुद्ध आत्मा को उपलब्ध करता है परन्तु अन्य कोई (पुरुष ऐसे शुद्ध आत्मा को उपलब्ध) नहीं करता।
(- श्री प्रवचनसार गाथा 126 की टीका) प्रश्न 21 - क्या जीव, विकार स्वतन्त्ररूप से करता है? उत्तर - हाँ, क्योंकि -
(1) ...पूर्व काल में बँधे हुए द्रव्यकर्मों का निमित्त पाकर' जीव अपनी अशुद्धचैतन्य शक्ति द्वारा रागादि भावों का (विकार का) कर्ता बनता है; तब (उसी समय) पुद्गलद्रव्य, रागादि भावों 1. उपादान से होनेवाला यह कार्य विकारी है, स्वभावभाव नहीं है, किन्तु
अवस्तुभाव है - ऐसा बतलाने के लिए तथा निमित्त का ज्ञान कराने के लिए 'निमित्त पाकर' (इस) शब्द का उपयोग किया जाता है।
(आत्मावलोकन, पृष्ठ 55)