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________________ 126 प्रकरण पाँचवाँ क्रिया है, वह आत्मा द्वारा स्वतन्त्ररूप से प्राप्त होने से कर्म है, इसलिए परमार्थ से आत्मा अपने परिणामस्वरूप ऐसे उस भावकर्म का ही कर्ता है परन्त पदगलपरिणामस्वरूप द्रव्यकर्म का नहीं। (- श्री प्रवचनसार, गाथा 122 की टीका) (4) व्यवहार से (लोग) मानते हैं कि जगत् में आत्मा घड़ा, वस्त्र, रथ इत्यादि वस्तुओं को और इन्द्रियों को, अनेक प्रकार के क्रोधादि द्रव्यकर्मों को और शरीरादि नोकर्मों को करता है किन्तु ऐसा मानना, वह व्यवहारी जीवों का व्यामोह (भ्रान्ति अज्ञान) है क्योंकि - (-श्री समयसार, गाथा 98 के आधार से) यदि निश्चय से यह आत्मा, परद्रव्यस्वरूप कर्म को करे तो परिणाम-परिणामीपना अन्य किसी प्रकार नहीं बन सकता; इसलिए वह (आत्मा) नियम से तन्मय (परद्रव्यमय) हो जाए परन्तु वह तन्मय तो नहीं हैं, क्योंकि कोई द्रव्य अन्य द्रव्यमय हो जाए तो उस द्रव्य के नाश की आपत्ति (दोष) आयेगा; इसलिए आत्मा व्याप्यव्यापकभाव से परद्रव्यस्वरूप कर्म का कर्ता नहीं है। (- श्री समयसार, गाथा 99 की टीका) योग, अर्थात (मन-वचन-काय के निमित्त से) आत्मप्रदेशों का चलन और उपयोग, अर्थात ज्ञान का कषायों के साथ उपयुक्त होना-जुड़ना। यह योग और उपयोग, घटादिक तथा क्रोधाधिक को निमित्त हैं; इसलिए उन्हें तो घटादिक तथा क्रोधादिक का निमित्त कर्ता कहा जाता है, किन्तु आत्मा को उनका कर्ता नहीं कहा जाता। आत्मा को संसारदशा में अज्ञान से मात्र योग-उपयोग का कर्ता कहा जा सकता है। तात्पर्य यह है कि द्रव्यदृष्टि से तो कोई द्रव्य, अन्य किसी
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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