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का निमित्त पाकर अपनी शक्ति से ( अपने उपादानकारण से ) अष्ट कर्मरूप भाव को प्राप्त करता है ।
प्रकरण पाँचवाँ
जिस प्रकार चन्द्र या सूर्य के प्रकाश का निमित्त पाकर सन्ध्या के समय आकाश में अनेक रङ्ग, बादल, इन्द्रधनुष, मण्डलादिक नाना प्रकार के पुद्गल स्कन्ध अन्य किसी कर्ता की अपेक्षा रखे बिना ( अपनी शक्ति से ) ही अनेक प्रकार परिणमित होते हैं, उसी प्रकार जीवद्रव्य के अशुद्ध चेतनात्मक भावों का निमित्त पाकर पुद्गल वर्गणाएँ अपनी ही शक्ति से ज्ञानावरणादि आठ प्रकार से कर्मदशारूप होकर परिणमित होती है ।
(पञ्चास्तिकाय, गाथा 66 की हिन्दी टीका )
(2) बन्ध प्रकरणवशात् अशुद्ध निश्चयनय से, जीव के रागादि विभाव परिणामों को भी (जीव का) स्वभाव कहा गया है । (पञ्चास्तिकाय, गाथा 65 की श्री जयसेनाचार्यकृत टीका)
(3) यद्यपि निश्चय से अपने निजरस से ही सर्व वस्तुओं का अपने स्वभावभूत ऐसे स्वरूप परिणमन में समर्थपना है, तथापि (आत्मा को) अनादि से अन्य वस्तुभूत मोह के साथ संयुक्तप होने से, आत्मा के उपयोग का मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरति
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- ऐसा तीन प्रकार का परिणाम विकार है ... ।
(समयसार, गाथा 89 की टीका ) (4) आत्मा के रागादि उत्पन्न होते हैं, वे अपने ही अशुद्ध परिणाम हैं। निश्चय से विचार किया जाए तो अन्य द्रव्य, रागादिक का उत्पन्न करनेवाला नहीं है; अन्य द्रव्य उनका निमित्तमात्र है क्योंकि अन्य द्रव्य के अन्य द्रव्य, गुण-पर्याय उत्पन्न नहीं करते - ऐसा नियम है। जो ऐसा मानते हैं (ऐसा एकान्त करते हैं) कि
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