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प्रकरण पाँचवाँ
का) जो परिणाम, वह कर्म है, और जो परिणति है, वह क्रिया है - यह तीनों वस्तुरूप से भिन्न नहीं है।
(कर्ता, कर्म और क्रिया - यह तीनों एक द्रव्य की अभिन्न अवस्थाएँ हैं; प्रदेशभेदरूप भिन्न वस्तुएँ नहीं हैं।)
(- श्री समयसार, गाथा 86, कलश 51) (2) "एकः परिणमति सदा परिणामो जायते सदैकस्य।
एकस्य परिणतिः स्यादनेकमप्येकमेव यतः ॥ 52॥ ___ अर्थात् वस्तु एक ही सदैव परिणमित होती है, एक के ही सदैव परिणाम होते हैं । (एक अवस्था से अन्य अवस्था एक की ही होती है) और एक की ही परिणति-क्रिया होती है क्योंकि अनेकरूप होने पर भी एक ही वस्तु है, भेद नहीं है।
(- श्री समयसार, कलश 51) (3) "नोभौ परिणमतः खलु परिणामो नोभयोः प्रजायेत।
उभयोर्न परिणतिः स्याद्यदनेकमनेकमेव सदा॥ 53॥ अर्थात् दो द्रव्य एक होकर परिणमित नहीं होते, दो द्रव्यों का एक परिणमन नहीं होता और दो द्रव्यों की एक परिणति-क्रिया नहीं होती क्योंकि अनेक द्रव्य हैं, वे सदैव अनेक ही हैं; बदलकर एक नहीं हो जाते।
(- श्री समयसार, कलश 53 ) (4) "नैकस्य हि कर्तारौ द्वौ स्तो द्वे कर्मणो न चैकस्य।
नैकस्य च क्रिये द्वे एकमनेकं यतो न स्यात्॥ 54॥ अर्थात् एक द्रव्य के दो कर्ता नहीं होते, और एक द्रव्य के दो कर्म नहीं होते तथा एक द्रव्य की दो क्रिया नहीं होती क्योंकि एक द्रव्य अनेक द्रव्यरूप नहीं होता। (- श्री समयसार, कलश 54)