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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 123 किन्तु सर्व द्रव्य अपने-अपने स्वभावरूप परिणमित होते हैं । मात्र यह जीव व्यर्थ ही कषायभाव करके व्याकुल होता है और कदाचित् अपनी इच्छानुसार ही पदार्थ परिणमित हो, तो भी वह अपने परिणमित करने से परिणमित नहीं हुआ है, किन्तु जिस प्रकार बालक चलती हुई गाड़ी को धकेलकर ऐसा मानता है कि 'इस गाड़ी को मैं चला रहा हूँ' - इसी प्रकार वह असत्य मानता है। (- श्री मोक्षमार्गप्रकाशक, अधिकार 4, पृष्ठ 92) इससे सिद्ध होता है कि जीव के भाव का परिणमन और पौद्गलिक कर्म का परिणमन एक-दूसरे से निरपेक्ष स्वतन्त्र हैं; इसलिए जीव में रागादिभाव वास्तव में द्रव्यकर्म के उदय के कारण होते हैं; जीव सचमुच द्रव्यकर्म को करता है और उसका फल भोगता है - इत्यादि मान्यता, वह विपरीत मान्यता है । जीव के रागादिकभाव के कारण कर्म आये और कर्म का उदय आया, इसलिए जीव में रागादिभाव हुए - ऐसा है ही नहीं। जीव के भावकर्म और द्रव्यकर्म के बीच मात्र निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्ता-कर्मभाव नहीं है, क्योंकि दोनों में अत्यन्ताभाव है। प्रश्न 19 - एक द्रव्य या द्रव्य की पर्याय के दो कर्ता हो सकते हैं? उत्तर - नहीं, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतन्त्र है, वह किसी परद्रव्य या निमित्त की सहायता की अपेक्षा नहीं रखता; वह स्वयं कार्यरूप परिणमित होता है। (1)"यः परिणमति स कर्ता यः परिणामों भवेत्तु तत्कर्म। या परिणतिः क्रिया सा त्रयमपि भिन्न न वस्तुतयो॥ 51॥ अर्थात् जो परिणमन होता है, वह कर्ता है; (परिणमित होनेवाले
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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